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गुरुवार, दिसंबर 23

अभी मिलन घट सकता उससे

अभी मिलन घट सकता उससे 


 ना  अतीत जंगल के उगते  

ना उपवन भावी के जिसमें, 

वर्तमान का पुष्प अनोखा 

खिलता उसी मरूद्यान में !


एक स्वप्न से क्या मिल सकता 

जिससे ज़्यादा ना दे अतीत, 

जाल कल्पना का भी मिथ्या 

भावी के सदा गाता गीत !


एक बोझ का गट्ठर लादे 

कितना कोई चल सकता है, 

यादों का सैलाब डुबाता 

भव सागर कब तर सकता है !


कल की फ़िक्र आज को खोया 

संवरे अब बने कल सुंदर, 

इस पल में हर राज छुपा है 

पहचानें  ! क्यों टालें कल पर !


अभी-अभी इक सरगम फूटी 

अभी अभी बरसा है बादल, 

अभी मिलन घट सकता उससे 

है परे काल से सदा अटल !




बुधवार, नवंबर 17

मन उपवन

मन उपवन 

शब्दों के जंगल उग आते हैं 

घने और बियाबान 

तो सूर्य का प्रकाश 

नहीं पहुँच पाता भूमि तक 

मन पर सीलन और काई 

की परतें जम जाती हैं 

जिसमें गिरते हैं नए-नए बीज

और दरख्त पहले से भी ऊँचे 

प्रकाश की किरणें ऊपर-ऊपर 

ही रह जाती हैं 

मन की माटी में दबे हैं 

जाने कितने शब्द 

स्मृतियों के घटनाओं 

और पुराने जन्मों के 

उपवन उगाना है तो 

काटना होगा इस जंगल को 

सूर्य की तपती धूप 

झेलनी होगी ताकि 

सोख ले सारी नमी व काई मिट्टी की 

खुदाई कर निकाल फेंकनी होंगी 

पुरानी जड़ें 

व्यर्थ के खर-पतवार 

फिर समतल कर माटी को 

सूर्य की साक्षी में 

नए बीज पूरे होश में बोने होंगे  

तब फूल खिलेंगे श्रद्धा और विश्वास के 

आत्मा का परस जिन्हें हर पल सुलभ होगा ! 


रविवार, फ़रवरी 10

जाने कितने पर्वत नापे


जाने कितने पर्वत नापे


अनगिन बार खिलाये उपवन,
कंटक अनगिन बार चुभे हैं,
जाने कितने पर्वत नापे
कितनी लहरों संग तिरे हैं !

मंजिल अनजानी ही रहती
द्वार न उसका खुलता दिखता,
एक चक्र में डोले जीवन
सार कहीं ना जिसका मिलता !

बार-बार इस जग में आकर
दांवपेंच लड़ाए होंगे,
अंधकार में ठोकर खाकर
फिर-फिर नैन गँवाए होंगे !

भय भीत पर खड़ा है जीवन
कैसे मन को विश्राम मिले,  
सत्य से आँख मिले न जब तक
क्योंकर अंतर में राम मिले !


बुधवार, नवंबर 15

अभी समय है नजर मिलाएं


 अभी समय है नजर मिलाएं


नया वर्ष आने से पहले
नूतन मन का निर्माण करें,
नया जोश, नव बोध भरे उर
नये युग का आह्वान करें !

अभी समय है नजर मिलाएं
स्वयं, स्वयं को जाँचें परखे,
झाड़ सिलवटों को आंचल से
नयी दृष्टि से जग को निरखे !

रंजिश नहीं हो जिस दृष्टि में
नहीं भेद कुछ भले-बुरे का,
निर्मल आज नजर जो आता
कल तक वह धूमिल हो जाता !

पल-पल बदल रही है जगती
नश्वरता को कभी न भूलें,
मन उपवन हो रिक्त भूत से
भावी हित मन माटी जोतें !

कर डालीं थी कल जो भूलें
उनकी जड़ें मिटा दें उर से,
नव पौध प्रज्ञा की उगायें
नव चिंतन से सिंचन कर के !

बने-बनाये राजपथ छोड़
नूतन राहों का सृजन करे,
नया दौर बस आने को है
मन शुभता का ही वरण करे !

सोमवार, सितंबर 26

कोष भरे अनंत प्रीत के

कोष भरे अनंत प्रीत के

पलकों में जो बंद ख्वाब हैं
पर उनको लग जाने भी दो,
एक हास जो छुपा है भीतर
अधरों पर मुस्काने तो दो !

सारा जगत राह तकता है
तुमसे एक तुम्हीं हो सकते,
होंगे अनगिन तारे नभ पर
चमक नयन में तुम ही भरते !

कोष भरे अनंत प्रीत के
स्रोत छुपाये हो अंतर में,
बह जाने दो उर के मोती
भाव सरि के संग नजर से !

जहाँ पड़ेगी दृष्टि अनुपम
उपवन महकेंगे देवों के,
स्वयं होकर तृप्ति का सागर
कण-कण में निर्झर भावों के !

गुरुवार, अप्रैल 28

खिले रहें उपवन के उपवन

खिले रहें उपवन के उपवन


रिमझिम वर्षा कू कू कोकिल
मंद पवन सुगंध से बोझिल,
हरे भरे लहराते पादप
फिर क्यों गम से जलता है दिल !

नजर नहीं आता यह आलम
या फिर चितवन ही धूमिल है,
मुस्काने की आदत खोयी
आँसू ही अपना हासिल है !

अहम् फेंकता कितने पासे
खुद ही उनमें उलझा-पुलझा,
कोशिश करता उठ आने की
बंधन स्वयं बाँधा न सुलझा !

बोला करे कोकिला निशदिन
हम तो अपना राग अलापें,
खिले रहें उपवन के उपवन
माथे पर त्योरियां चढ़ा लें !

आखिर हम भी तो कुछ जग में
ऐसे कैसे हार मान लें,
लाख खिलाये जीवन ठोकर
क्यों इसको करतार जान लें !

रविवार, जनवरी 25

आया वसंत

आया वसंत

महुआ टपके रसधार बहे
गेंदा गमके मधुहार उगे ,
महके सरसों गुंजार उठे
घट घट में सोया प्यार जगे !

ऋतू मदमाती आई पावन
झंकृत होता हर अंतर मन,
रंगों ने बिखराई सरगम
संगीत बहा उपवन उपवन !

जागे पनघट जल भी चंचल
हुई पवन नशीली हँसा कमल,
भू लुटा रही अनमोल कोष
रवि ने पाया फिर खोया बल !

जीवन निखरा नव रूप धरा
किरणों ने नूतन रंग भरा,
सूने मन का हर ताप गया,
हो मिलन, उठा अवगुंठ जरा !


रविवार, अगस्त 3

एक लहर शिव व सुंदर की


एक लहर शिव व सुंदर की


स्पृहा सदा सताती मन को
बढ़ जाता तब उर का स्पंदन,
सदानीरा सी मन की धारा
कभी न लेने देती रंजन !

संपोषिका प्रीत अंतर की
खो जाती हर पीड़ा जिसमें,
एक लहर शिव व सुंदर की
भर जाती थिरकन उर में !

मिटे स्पृहा प्रीत जगे जब
मुक्त खिलेगा अंतर उपवन,
सत्य साक्षी होगा जिस पल
सहज छंटेगा तिमिर का अंजन ! 

रविवार, जून 29

खोल पंख नव इतराता है

खोल पंख नव इतराता है


मुक्त हुआ मन खो जाता है
अब वह हाथ कहाँ आता है,
अनथक जो वाचाल बना था
अब चुपचुप सा मुस्काता है !

प्रियतम का जो पता पा गया
अनजाने का संग भा गया,
छू आया अंतिम सीमा जो
खोल पंख नव इतराता है !

भांवर डाली जिसने पी संग
चूनर कोरी दी श्यामल रंग,
किसकी राह तके अब बैठा
गीत मिलन क्षण-क्षण गाता है !

सुधियाँ भी अब कहाँ सताती
चाह दूजे की नहीं रुलाती,
एक लहर उठती मन सागर
बस इक वही नजर आता है !

स्वप्न खो गये दूर गगन में
 उड़ी कल्पना कहीं पवन में,
 विकसित सरसिज एक अनोखा
उर उपवन को महकाता है !


बुधवार, दिसंबर 19

अब जब




अब जब

अब जब कुछ करने को नहीं है
तो समय की अनंत राशि बिखरी हुई है
चारों ओर...

अब जब कहीं जाना नहीं है
दूर तक सीधी सुकोमल राह बिछी है
फूलों भरी...

अब जब सुनने को कुछ शेष नहीं रह गया
उपवन गुंजाता है भीतर अहर्निश कोई रागिनी
गूंजते हैं मद्धिम मद्धिम पायल के स्वर...

अब जब देखने की चाह नहीं है  
नित नए रंगों में रूप दीखता है
लुभाती है इठलाती हुई प्रकृति....

अब जब कि कुछ पाना नहीं है
सारा अस्तित्व ही पनाह लेता दीखता है भीतर
आँख मूंदते ही...

अब जब कि कुछ जानना नहीं है
वह आतुर है अपने रहस्य खोलने को....

सोमवार, दिसंबर 26

नए वर्ष के लिये संकल्प


नए वर्ष के लिये संकल्प

मन उपवन नित सजा रहे, न उगने पाए खर-पतवार
मंजिल की बाधा बन जाये, जमे न ऐसा कोई विचार

आशा के कुछ पुष्प उगायें, पोषण दे, ऐसा ही सोचें
कंटक चुन-चुन बीनें पथ से, सदा अशुभ को बाहर रोकें

प्रज्ञा की सुंदर बेल हो, दृढ़ इच्छा का वृक्ष लगे
प्रेम की धारा बहे सदा, बुद्धि, ज्योति बनी जगे

अपसंस्कृति को प्रश्रय न दें, सुसंस्कृति ही पनपे
तहस-नहस न हो मन उपवन, जीवन निशदिन महके

नया-नया सा नित विचार हो, भीतर ज्ञान की ललक उठे
जिज्ञासा जागृत हो मन में, जिजीविषा भी प्रबल रहे

रहे जागरण भीतर प्रतिपल, प्रतिपल श्रद्धा हो अर्जित
आगे ही आगे ही बढ़ना है, भीतर स्मृति हो वर्धित