शनिवार, जुलाई 9

फलसफा मन का

फलसफा मन का


कह रहा है कोई कब से 

सुनो सरगोशियाँ उसकी 

बेहद महीन सी आवाज़ 

पुकारे है जिसकी 

शोर ख़्वाहिशों का दिल में 

थम जाए जिस घड़ी 

 इक पुर सुकून पवन 

आहिस्ता से छू जाती  

कोई कशिश, तलाश कोई 

अनजान राहों पर लिए जाती  

वह जो अपना सा लगे 

 याद जिसकी बरबस सताती  

चैन उसकी पनाह में है 

यह राज अब राज नहीं 

 भुलाना नहीं मुमकिन 

क्या दिल को यह अंदाज नहीं 

उसकी फ़िक्रों  में नींद रातों की गंवायी 

जिक्र उसका हर नज्म में जो भी गायी 

रहे  उस गली में वही

समाते जहाँ दो नहीं 

हवा है, धूप या 

पानी का कतरा 

सबब जीवन का 

या फलसफा मन का !




13 टिप्‍पणियां:

  1. सादर नमस्कार ,

    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (10-7-22) को "बदलते समय.....कच्चे रिश्ते...". (चर्चा अंक 4486) पर भी होगी।
    आप भी सादर आमंत्रित है,आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ायेगी।
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    कामिनी सिन्हा


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  2. मन का फ़लसफ़ा ही तो सारी खुराफ़ातों की जड़ है.

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  3. बहुत खूब। मन का फलसफा बहुत बढ़िया लगा। शुभकामनाएँ। सादर।

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    1. पहली बार आपका आगमन हुआ है इस ब्लॉग पर, स्वागत व आभार!

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  4. मन का ही तो सारा खेल है ,सुंदर रचना

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