अंतहीन उसका है आंगन
मौन से इक उत्सव उपजता
नई धुनों का सृजन हो रहा,
मन में प्रीत पुष्प जन्मा है
सन्नाटे से गीत उठ रहा !
उस असीम से नेह लगा तो
सहज प्रेम जग हेतु जगा है,
अंतहीन उसका है आंगन
भीतर का आकाश सजा है !
बिन ताल एक कमल खिला है
हंसा लहर-लहर जा खेले,
बिन सूरज उजियाला होता
अंतर का जब दीप जला ले !
शून्य गगन में हृदय डोलता
मधुमय अनहद नित राग सुने,
अमिय बरसता भरता जाता
अंतर घट को जो रिक्त करे !
घर में ही जब ढूँढा उसको
वहीं कहीं छुप कर बैठा था
नजर उठा के देखा भर था
हुआ मस्त जो मन रूठा था !
आदि, अंत से रहित हो रहा
आठ पहर है सुधा सरसती,
दूर हुई जब दौड़ जगत की
निकट लगी नित कृपा बरसती !
बहुत सुंदर।
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार ज्योति जी!
हटाएंनमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा शुक्रवार 23 सितंबर 2022 को 'तेरे कल्याणकारी स्पर्श में समा जाती है हर पीड़ा' ( चर्चा अंक 4561) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है। 12:01 AM के बाद आपकी प्रस्तुति ब्लॉग 'चर्चामंच' पर उपलब्ध होगी।
बहुत बहुत आभार रविंद्र जी!
हटाएंबहुत सुंदर अनीता जी...''शून्य गगन में हृदय डोलता
जवाब देंहटाएंमधुमय अनहद नित राग सुने,
अमिय बरसता भरता जाता
अंतर घट को जो रिक्त करे !'' शानदार रचना ...आध्यात्म और साहित्य का अद्भुत समन्वय
स्वागत व आभार अलकनंदा जी !
हटाएंबहुत सुंदर गहन आध्यात्मिक चिंतन को सुंदर शब्दों में समेटा है आपने अनिता जी।
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार कुसुम जी!
हटाएंभीतर का आकाश जगा है
जवाब देंहटाएंगहन संवेदनाओं को कितनी सहजता से व्यक्त किया है
कमाल गीत
बधाई