पल दो पल की है यह माया
यह जो घट रहा मन से जुड़ा
हो घनी धूप चाहे छाया,
व्यर्थ मिटाने का श्रम करता
केवल पल दो पल की माया !
सत्य मानकर यदि चलेगा
दुःख के सिवा न कुछ भी मिलता,
जो बदल रहा पल-पल जग में
सुख कैसे उससे खिल सकता !
राग-विराग के बिम्ब गढ़ लिए
उनके प्रतिबिम्बों में खोया,
उर यह जिस पल हँस सकता था
उन घड़ियों में भी वह रोया !
जो भी मिला वही है काफी
जब तक न यह तोष जगेगा,
जग का माया जाल सदा ही
अन्तर की समता हर लेगा !
मनमोहक कविता
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार सुनील जी!
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