शुक्रवार, सितंबर 30

पल दो पल की है यह माया

पल दो पल की है यह माया 


यह जो घट रहा मन से जुड़ा  

 हो  घनी धूप चाहे छाया,

व्यर्थ मिटाने का श्रम करता  

केवल पल दो पल की माया !


सत्य मानकर यदि चलेगा  

दुःख के सिवा न कुछ भी मिलता, 

जो बदल रहा पल-पल जग में 

सुख कैसे उससे खिल सकता !


राग-विराग के बिम्ब गढ़ लिए 

उनके प्रतिबिम्बों में खोया, 

उर यह जिस पल हँस सकता था

उन घड़ियों में भी वह रोया !


जो भी मिला वही है काफी 

जब तक न यह तोष जगेगा,

जग का माया जाल सदा ही 

अन्तर की समता हर लेगा !


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