मंगलवार, सितंबर 27

माया

 माया 

निर्विकल्प होकर ही 

मिला जा सकता है उससे 

जिसे अज्ञानी मिल सकते हैं 

पर जानने का अभिमान रखने वाले नहीं 

जो  बचाए रखता है खुद को

बार-बार दुःख पाता है 

मिलन के उस छोटे से पल में 

मौन का निर्णय भी हमारा नहीं होता 

अस्तित्त्व ही कराता है 

वह तब बरसता है 

जब उसको बरसना है 

हमें बस तैयार रहना है 

उसकी शरण में आना है 

और जहाँ अहंता ही शेष न हो 

तो ममता कैसे टिकेगी 

कैसे बचेगा मोह और आसक्ति 

वह इतना सूक्ष्म है कि वहाँ कुछ ठहर नहीं सकता 

माया में लोटपोट होना हमने ही तय किया 

तो यह हमारा निर्णय हो सकता है 

पर मायापति स्वयं वरण करता है 

जब जानने और होने के मध्य कोई अंतराल नहीं होता 

जो खोया है अब भी विचारों  के जंगल में 

उसने चुना है माया को ! 


9 टिप्‍पणियां:

  1. वाह!बहुत सुंदर सराहनीय सृजन।

    जो बचाए रखता है खुद को... बहुत सुंदर।

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  2. आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 29.9.22 को चर्चा मंच पर चर्चा - 4567 के 8 लिंकों में शामिल किया गया है| आईएगा
    धन्यवाद
    दिलबाग

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  3. 'मिलन के उस छोटे से पल में

    मौन का निर्णय भी हमारा नहीं होता' ... 'और जहाँ अहंता ही शेष न हो

    तो ममता कैसे टिकेगी' -सुन्दर अभिव्यक्ति... सुन्दर रचना

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  4. स्वागत व आभार हृदयेश जी!

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