बुधवार, अप्रैल 12

एक प्यास जो अंतहीन है


एक प्यास जो अंतहीन है


एक ललक अम्बर  छूने की 

एक लगन उससे मिलने की, 

एक प्यास जो अंतहीन है 

एक आस खुद के खिलने की !


सत्य अनुपम मन गगन समान 

उसमें मुझमें न भेद कोई, 

जल में राह मीन प्यासी क्यों 

खिल जाता वह ठहरा है जो !


पाने की हर बात भरम  है 

जो भी अपना मिला हुआ है, 

बनने की हर आस भुलाती 

हर उर भीतर खिला हुआ है !


भीतर ही विश्राम सिंधु है 

भर लें जिससे दिल की गागर, 

गर उससे तृप्ति नहीं पायी 

परम भेद कब हुआ उजागर !


5 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत बहुत आभार रवींद्र जी!

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  2. एक ललक अम्बर छूने की

    एक लगन उससे मिलने की,

    एक प्यास जो अंतहीन है

    एक आस खुद के खिलने की !
    प्यास और आस को तृप्त करती सुंदर रचना आदरणीय ।

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  3. एक ललक अम्बर छूने की
    एक लगन उससे मिलने की,
    एक प्यास जो अंतहीन है
    एक आस खुद के खिलने की !

    .. बहुत ही प्रेरक और ऊर्जा प्रदान करती पंक्तियां। बहुत सुंदर रचना।

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