उर नवनीत चुराने वाला
श्वासों का उपहार मिला है
जीवन की हर घड़ी अनमोल,
प्रेम छुपा हर इक अंतर में
कृष्ण की गीता के हैं बोल !
मेरा ही बन, नमन मुझे कर
मन, मेधा मुझको कर अर्पित,
मुक्त हुआ फिर विचर जहां में
हो मेरी माया से ऊर्जित !
तेरा कुशल-क्षेम मैं धारूँ
सुख-दुख के तू ऊपर उठ जा,
युग-युग के हम मीत अमर हैं
मुझे याद सब तू है भूला !
कण-कण में मेरी आभा है
रवि, चन्द्र, तारों की चमक भी,
मेरी कुदरत से प्रकटी है
सृष्टि में मति, प्रज्ञा आदि भी !
कैसे करें न सदा शुक्रिया
जो कान्हा आनंद बिखेरे,
उर नवनीत चुराने वाला
मृदु भावों की बंसी टेरे !
व्याप्त रहा है भीतर बाहर
सूक्ष्म लोक के राज खोलता,
गुरु बनकर मार्ग दिखलाए
सखा बना वह संग खेलता !
आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" सोमवार 24 एप्रिल 2023 को साझा की गयी है
जवाब देंहटाएंपाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
बहुत बहुत आभार यशोदा जी !
हटाएंवाह!अनीता जी ,सुंदर सृजन ।
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार शुभा जी!
हटाएंकैसे करें न सदा शुक्रिया
जवाब देंहटाएंजो कान्हा आनंद बिखेरे,
उर नवनीत चुराने वाला
मृदु भावों की बंसी टेरे !
बहुत सुन्दर भाव। . सच बंसी वाला सबके दुःख दर्द पलभर में हर लेता है
स्वागत व आभार कविता जी!
हटाएंउर नवनीत चुराने वाला
जवाब देंहटाएंमृदु भावों की बंसी टेरे !
बहुत सुन्दर भाव।
स्वागत व आभार संजय जी!
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