पलकों में है बंद ख़्वाब इक
झर-झर झरता बादल नभ से
सम्मुख दरिया भी बहता है,
सब कुछ पाकर भी इस दिल का
प्याला ख़ाली ही रहता है !
जाने किसको ढूँढ रही हैं
दिवस-रात्रि स्वप्निल दो आँखें
जाने कैसे बिगड़ी जातीं
बनते-बनते सारी बातें !
हर सुख पाया है इस जग का
फिर भी इक कंटक चुभता है,
पलकों में है बंद ख़्वाब इक
अक्सर ही आकर तकता है !
पूर्ण नहीं होती यह कैसी
प्यास जगी है अंतर्मन में,
जीवन सूना-सूना लगता
थिरता कब आयी जीवन में !
कसक न दिल की दूर हुई है
कैसे होगी यह भान नहीं,
सुख-सुविधा के अंबार लगे
ख़ुद का ही नर को ज्ञान नहीं !
आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" सोमवार 17 एप्रिल 2023 को साझा की गयी है
जवाब देंहटाएंपाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
बहुत बहुत आभार यशोदा जी!
हटाएंअति सुन्दर
हटाएंस्वागत व आभार उर्मिला जी!
हटाएंगहन और भावपूर्ण भावाभिव्यक्ति
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार ओंकार जी, आपकी सतत उपस्थिति प्रशंसनीय है
हटाएंमननपूर्ण रचना।
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार जिज्ञासा जी!
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