बुधवार, जून 12

सुख खिलता सदा उजालों में

सुख खिलता सदा उजालों में


​​उलझ-पुलझ अंतर रह जाता  

अपने ही बनाये जालों में, 

जो भी चाहा वह मिला बहुत 

खो  डाला किन्हीं ख़्यालों में !


तम की चादर से ढाँप लिया 

सुख खिलता सदा उजालों में, 

परिवर्तन भी आया केवल 

चाय के कप के उबालों में !


जिनको खाकर तन कुम्हलाया 

हर राज था उन्हीं निवालों में, 

जो विस्मय से भर सकता मन 

उलझाया उसे सवालों में !


उड़ने को खुला गगन पाया 

ख़ुद घेरा इसे दिवालों में, 

जीवन की संध्या में पूछा 

क्या पाया भला बवालों में ?


11 टिप्‍पणियां:

  1. बाहर-भीतर बैचेनी, कुछ न मिला बवालों में, सुख की तलाश जारी है आजीवन सवालों में।
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    बहुत सुंदर अभिव्यक्ति।
    सस्नेह
    सादर।
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    जी नमस्ते,
    आपकी लिखी रचना शुक्रवार १४ जून २०२४ के लिए साझा की गयी है
    पांच लिंकों का आनंद पर...
    आप भी सादर आमंत्रित हैं।
    सादर
    धन्यवाद।

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  2. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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  3. जीवन की संध्या में पूछा
    क्या पाया भला बवालों में ?
    उत्तम अभिव्यक्ति मैम🙏🏻👏🏻👏🏻👏🏻👏🏻🙏🏻

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