हम आत्मदेश के वासी हैं
भीतर एक ज्योति जलती है
जो तूफ़ानों में भी अकंप,
तन थकता जब मन सो जाता
जगा रहता आत्मा निष्कंप !
तन शिथिल हुआ मन दृढ़ अब भी
‘स्वयं’ सदा जागृत है भीतर,
हम आत्मदेश के वासी हैं
फिर क्यों हो जरा-मृत्यु से डर !
मृत्यु पर पायी विजय हमने
जिस पल भीतर देखा ख़ुद को,
नित मौन अटल घटता अंतर
बाहर बैठाया हर दुख को !
जीवन की संध्या आती है
कब मेला यह उठ जाएगा ?
नहीं शिकायत कोई जग से
संग ‘वही’ अपने जाएगा !
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