सच से नाता तोड़ लिया जब
शब्दों में ताक़त होती है
शब्द अगर सच कहना जानें,
धरती ज्यों सहती आयी है
संतानें भी सहना जानें !
माटी, जल में विष घोला है
पनप रही यहाँ लोभ संस्कृति,
खनन किया, वन जंगल काटे
आयी बुद्धि में भीषण विकृति !
युद्धों के पीछे पागल है
दीवाना मानव क्या चाहे,
शिशुओं की मुस्कानें छीनीं
रहीं अनसुनी माँ की आहें !
कहीं सुरक्षित नहीं नारियाँ
वहशी हुआ समाज आज है,
अनसूया-गार्गी की धरती
भयावहता का क्यों राज है !
कहाँ ग़लत हो गयी नीतियाँ
भुला दिये सब सबक़ प्रेम के,
अपना स्वार्थ सधे कैसे भी
शेष रहें हैं मार्ग नर्क के !
टूट रहे परिवार, किंतु है
सीमाओं में जकड़ा मानव !
सच से नाता तोड़ लिया जब
जागा भीतर सोया दानव !
समसामयिक विकृत परिदृश्यों का विचारणीय चित्रण।
जवाब देंहटाएंसादर।
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जी नमस्ते,
आपकी लिखी रचना शुक्रवार १३ सितम्बर २०२४ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
बहुत बहुत आभार श्वेता जी !
हटाएंसटीक। और सत्य। कटु सत्य। जब तक कोई जाग नहीं जाता, हमें आवाज देते रहना होगा।
जवाब देंहटाएंसही कह रही हैं आप, स्वागत व आभार !
हटाएंसुन्दर
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार !
हटाएंबहुत बहुत सुन्दर सराहनीय रचना
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार !
हटाएंकहीं सुरक्षित नहीं नारियाँ
जवाब देंहटाएंवहशी हुआ समाज आज है,
अनसूया-गार्गी की धरती
भयावहता का क्यों राज है !
बहुत सटीक एवं लाजवाब सृजन ।
स्वागत व आभार सुधा जी !
हटाएंबहुत ही सुंदर सृजन।
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार !
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