शुक्रवार, सितंबर 20

कविता

कविता 

सुना आपने

अब कविता पढ़ना मुझे नहीं भाता 

अक्सर मैं कविता का पेज ही खोल कर नहीं देखती 

टिकने ही नहीं देती आँखों को शीर्षक पर

 एक क्षण के लिए भी 

शायद भय है अंतर्मन में 

पुराना प्रेम जाग न उठे 

न लगने लगें कविताएँ अपनी-अपनी 

सो दूर से ही नमन करती हूँ 

नहीं तौलती शब्दों को 

भावों को अनुभूति में नहीं लाती

विचारती हूँ, परखती हूँ 

पर नहीं देखती, न छूती  

वृक्षों, पत्तियों और फूलों को 

मैं बिगड़ गई हूँ 

एक कली ने कल राह चलते कहा था 

मैंने अनसुना कर दिया 

कान नहीं दिये 

क्योंकि अब मैं वह नहीं रही 

मुझे अभाव नहीं है कोई 

 सभी कुछ है 

अब फूलों को अपना दुख सुनाने को रहा ही नहीं 

हवा का संगीत सुनने का वक्त नहीं 

फिर क्यों कविता पढ़ूँ 

क्यों अफ़सोस करूँ 

भ्रष्टाचार पर, असमानता पर, बेरोज़गारी पर 

क्यों नाराज़ रहूँ भ्रष्ट सत्ता से 

अब मैं स्वतंत्र हूँ 

अपने पैरों पर हूँ 

अब सब ठीक चल रहा है 

पेड़ कहीं कटते होंगे 

मुझे आवाज़ सुनायी नहीं देती 

नारे लगते होंगे, जुलूस निकलते होंगे 

पर वे बेमतलब हैं 

पहाड़ों पर आग लगती होगी शायद 

पर मैंने खिड़की कहाँ खोली है 

बंद हैं आँखें मेरी 

सपनों में नहीं 

अब तो ज़िंदगी चलने लगी है 

मैंने इसकी सेहत का जाम पिया था 

नये वर्ष पर 

शुभकामना भी दी थी 

अब मुझे कविता ज़रूरी नहीं लगती 

कि अच्छे-भले शब्दों को 

साथ-साथ रख दिया जाये यूँही 

मन बहलाव के लिए 

सुना आपने कविता अब 

ऊपर की या नीचे की शै हो गई है 

दूसरी श्रेणी की !


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