मिलन धरा का आज गगन से
काले कजरारे मेघों का
गर्जन-तर्जन सुन मन डोले,
छम-छम बरसा नीर गगन से
मलय पवन के सरस झकोले !
चहुँ दिशा से जलद घिर आये
कितने शुभ संदेश छिपाए,
आँखों में उतरे धीरे से
कह डाला सब फिर बह जायें !
उड़ते पत्ते, पवन सुवासित
धरती को छू-छू के आये,
माटी की सुगंध लिए साथ
हर पादप शाखा सहलायें !
ऊँचे, लंबे तने वृक्ष भी
झूमें, काँपें, बिखरे पत्ते,
छुवन नीर की पाकर प्रमुदित
मिलन धरा का आज गगन से !
ऊपरे नीचे जल ही जल है
एक हुए धरती आकाश,
खोयीं सभी दिशाएँ जैसे
कुहरे में डूबा है प्रकाश !
सुन्दर रचना
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार !
हटाएंआपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" पर गुरुवार 26 सितंबर 2024 को लिंक की जाएगी ....
जवाब देंहटाएंhttp://halchalwith5links.blogspot.in पर आप सादर आमंत्रित हैं, ज़रूर आइएगा... धन्यवाद!
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बहुत बहुत आभार रवींद्र जी !
हटाएंबहुत सुंदर सृजन
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार !
हटाएंबहुत बहुत सुन्दर रचना
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार !
हटाएंबहुत सुन्दर ! प्रवाहपूर्ण और भावपूर्ण रचना.
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार !
हटाएंबरखा और प्रकृति के परिवर्तन को बाखूबी शब्द दे दिए ... ...
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार !
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