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गुरुवार, जनवरी 23

साधना

साधना 


वह, जो है 

वह, जो अनाम है 


पाया जा सकता है 

उसका पता, उससे

 वह, जो नहीं है 


जो नहीं है 

पर होने का भ्रम जगाता है 


स्वीकार कर लेता है जब 

न होने को अपने 

तब झलक जाता है वह, जो है 


और तब जो नहीं है 

बन जाता है वह जो है 


कुछ नहीं से 

सब कुछ बन जाना ही 

साधना है  


देह व मन को भी 

यही भेद जानना है 


कि वे नहीं हैं अपने आप में कुछ 

और तब वे जुड़ जाते हैं विराट से 


एक विशाल मन ही 

चलाता है सारे मनों को 


पंचभूत चलाते हैं 

सारी देहों को ! 


शुक्रवार, सितंबर 10

गणपति का पूजन करते हैं

गणपति का पूजन करते हैं


मूल आधार में स्थित रहते 

हैं शुभता का प्रतीक गणेश, 

प्रिय अबोध बालक देवी के 

चैतन्य परम प्रसाद गणेश !


विघ्नों की बाधा हरते हैं 

मानवता को राह दिखाते, 

पवित्रता असीम फैलाएँ 

पुण्य शक्ति की रक्षा करते !


अंतर सहज समृद्ध बनाते 

गणपति का पूजन करते हैं, 

मानवों की बुद्धि सीमित है 

गज का वह मस्तक धरते हैं !


भीतर जब शुचिता छायी हो 

माँ की तभी कृपा बरसेगी, 

नित्य साधना गणपति की जब 

शुभ शक्ति तभी जागृत होगी !


मेधा को पावन करते हैं 

सत् असत् का रहस्य बताते, 

दृष्टि हो पावन चित्त भी स्थिर 

नीर-क्षीर मनीषा जगाते !


सोमवार, अक्टूबर 12

जो खिल रहा अनंत में

 जो खिल रहा अनंत में 

एक ही तो बात है 

एक ही तो राज है, 

एक को ही साधना 

एक से दिल बाँधना !


एक ही आनंद है 

वही जीवन छंद है, 

बह रहा मकरंद है 

मदिर कोई गंध है !


खिले वही अनंत में 

दुःख-विरह के अंत में, 

राधा-श्याम कंत में

ऋतुराजा वसंत में ! 

 

 रहे यदि बंटे हुए 

जीवन से कटे हुए, 

 तीर से बिंधे हुए 

सुख विलग रुंधे हुए !


राज से अनभिज्ञ है 

मूढ़ कोई विज्ञ है, 

एक की हो साधना 

उसी  की  आराधना !


गुरुवार, जून 4

सार सार को गहि रहे

सार सार को गहि रहे 


‘साधना’ में छुपी है धन की परिभाषा 
धन वही है जो पार लगाए 
वह नहीं जो रखा रह जाये 
जो सारयुक्त है 
वही धन है 
उसे ही साधना है 
हंस की तरह जो विवेक धरे 
उस मन में जगती भावना है 
भावना जो भर देती है शांति और प्रेम से 
जो आनंद की लहर उठाती है 
व्यर्थ जब हट जाता है प्रस्तर से 
तो सुंदर मूरत उभर आती है 
क्यों हम व्यर्थ ही दुःख के भागी बनें 
कंकड़ों-पत्थरों के रागी बनें 
जब एक हीरा सामने जगमगाता है 
तब क्यों सूना दिल कसमसाता है 
मुद्दे की बात ‘एक’ ही है
जिसका जिक्र किताबों में है 
शेष सब तो उसी की व्याख्या है 
इस ‘एक’ का जो ध्यान लगाता है दिल में 
जाग जाती उसकी प्रज्ञा है ! 

सोमवार, मार्च 9

विपासना का अनुभव -अंतिम भाग

विपासना का अनुभव 

सुबह आठ बजे से नौ बजे तक, दोपहर ढाई से साढ़े तीन बजे तक तथा शाम छह से सात बजे तक सामूहिक साधना होती थी. जिसमें सभी साधकों का पूरे वक्त उपस्थित रहना आवश्यक था. शेष समय में कभी–कभी पुराने साधकों को अपने निवास स्थान पर ध्यान करने के लिए कहा जाता था और कभी-कभी कुछ नये और पुराने साधकों को शून्यागारों में ध्यान करने के लिए कहा जाता था. गोल पगोड़ा में स्थित शून्यागार एक विशिष्ट आकार के छोटे-छोटे ध्यान कक्ष थे, जिनमें अकेले बैठकर ध्यान करना होता था. एक दिन शून्यागार में ध्यान करते हुए अनोखा अनुभव हुआ, जिसमें एक क्षण के लिए स्वयं को देह से अलग देखा, जैसे मैं पृथक हूँ और देह बैठकर ध्यान कर रही है. जैसे ही इस बात का बोध हुआ, अनुभव जा चुका था.

विपश्यना आरम्भ होने पर चौथे दिन के उत्तरार्ध से गुरूजी ने शरीर में होने वाली संवेदनाओं पर ध्यान देने को कहा. पहले दिन केवल नाक के छल्लों तथा ऊपर वाले होंठ के ऊपर वाले भाग पर ही, बाद में सिर से लेकर पैर तक एक-एक अंग पर कुछ क्षण रुकते हुए वहाँ होने वाली किसी भी तरह की संवेदना को देखना था. यह संवेदना किसी भी प्रकार की हो सकती थी, दर्द, कसाव, खिंचाव, सिहरन, खुजली, फड़कन या अन्य किसी भी प्रकार का शरीर पर होने वाला अनुभव. मुख्य बात यह थी कि संवेदना चाहे सुखद हो या दुखद, उसके प्रति किसी भी प्रकार की प्रतिक्रिया नहीं करनी थी. वे सभी संवेदनाएं स्वतः ही उत्पन्न होकर नष्ट हो जाती हैं, साक्षी भाव से इस अनित्यता के नियम का दर्शन करना था. हमारा अंतर्मन न जाने कितने संस्कार छिपाए है और हर पल हम नये संस्कार बनाते चल रहे हैं. हमसे जाने-अनजाने जो भी गलत-सही हुआ है, उसका हिसाब तो चुकाना ही होगा. औरों को देखकर जो द्वेष का भाव मन में जगता है वह भीतर गाँठ बनकर टिक जाता है. प्रकृति का नियम है विकार जगाया तो व्याकुल तो होना ही पड़ेगा. अतीत में जगाये विकार समय आने पर देह पर किसी न किसी रोग के रूप में आकर प्रकट हो सकते हैं. साक्षी का अनुभव होने के बाद राग, द्वेष व मोह के बंधन नहीं बंधते.
आठवां दिन आते आते तो मन भी जैसे दूर खो गया लगता था, देह पर होने वाले सुख-दुःख जैसे किसी और को हो रहे हैं. मन एक असीम मौन में डूबा हुआ है. लगा, सारा विश्व जैसे एक ही सूत्र में पिरोया हुआ है और वह सूत्र मुझ से होकर भी जाता है, सदा से ऐसा ही था और सदा ऐसा ही रहेगा, यह देह एक दिन गिर जायेगी फिर भी यह चेतना किसी न किसी रूप में तो रहेगी ही. एक दिन गोयनका जी ने कहा, मन और देह दोनों एक नदी की तरह हैं. मौसम बदलते हैं तो नदी भी बदलती है वैसे ही मन और देह के भी मौसम होते हैं. देह का आधार अन्न है और मन का आधार संस्कार हैं जो हर पल बनते-मिटते रहते हैं. मन के किनारे बैठकर जो इसे देखना सीख जाता है वह इससे प्रभावित नहीं होता.

एक रात्रि स्वप्न में स्वयं को किसी दुःख से छुड़ाने के लिए रोकर पुकार लगाते सुना, फिर अपने ही मुँह से एक धातु का उपकरण निकालकर हाथ में रखा, स्पष्ट था कि पीड़ा का कारण यही था. तब जैसे किसी ने कान में फुसफुसा कर कहा, अपने आप को स्वयं ही क्यों दुखी बनाती हो? फिर नींद खुल गयी. एक स्वप्न में देखा, उठना चाहती हूँ पर आँखें हैं कि खुलने का नाम नहीं लेतीं, बंद आँखों से ही चल पड़ती हूँ तो सामने दीवार आ जाती है, दिशा बदल कर सडक पर आ जाती हूँ और आँखें खोलने में समर्थ हो जाती हूँ. एक स्वप्न में खुद को निरंतर ७८६ को उच्चारित करते हुए पाया. एक और स्वप्न में भगवान शंकर का जयकार करते हुए. ये सारे स्वप्न यही तो बता रहे थे कि न जाने कितने बार यह चक्र घूम चुका है अब कहीं तो इसे रुकना होगा. कभी-कभी ऐसे व्यर्थ के विचार भी आते कि हँसी आती, पर जो जो भीतर रिकार्ड किया है वह तो निकलेगा ही, सारी साधना समता भाव बनाये रखने की है. कोई भी अनुभव कितना भी सुंदर क्यों न हो समाप्त हो जाता है, पर भीतर की समता एक चट्टान की तरह अडिग रहती है.

अंतिम दिन का पाठ भी अतुलनीय था, जिसमें मंगल मैत्री सिखायी गयी. प्रतिदिन सुबह व शाम की साधना के बाद सारे विश्व के लिए मंगल कामना करने को कहा गया अपने सारे पुण्य केवल स्वयं की शुद्धि के लिए समाप्त न हो जाएँ सब दिशाओं में उन्हें प्रसारित करना होगा. सबके मंगल में ही अपना मंगल छिपा है, भगवान बुद्ध की यह मंगल भावना कितनी पावन है. धरा पर यदि कोई जगा हुआ न हो तो इसकी रौनक कोई देख ही न पाए, उस तरह, जिस तरह यह वास्तव में है ! जो दिखायी नहीं देता, वह उससे ज्यादा सुंदर है जो दिखायी देता है. ‘शील, समाधि और प्रज्ञा’ भगवान बुद्ध के बताये इस मार्ग पर चलकर न जाने कितने लोग दुखों से मुक्ति का अनुभव कर चुके हैं, और अनेक भविष्य में भी करते रहेंगे.  

शनिवार, मार्च 7

विपासना का अनुभव -४


भोजन के पश्चात एक घंटा विश्राम के लिए था. दोपहर एक बजे से पुनः साधना का क्रम शुरू होता जो दो बजे तक चलता. फिर ढाई से साढ़े तीन बजे तक तथा पांच मिनट के विश्राम के बाद शाम पांच बजे तक पुनः चलता. लगातर इतने समय बैठा रहना व श्वास पर ध्यान देना इतना सरल कार्य नहीं था, पैरों में जगह-जगह पीड़ा होने लगती, आसन बदलते, धीरे-धीरे इधर-उधर पैरों को मोड़ते उसी स्थान पर किसी तरह स्वयं को सम्भाले बैठे रहते. आँख भी नहीं खोलनी थी, कुछ मिनट के प्रारम्भिक निर्देशों के बाद स्वयं ही ध्यान करना होता था. पुराने साधक आराम से बैठे रहते. आखिर गोयनका जी की आवाज आती, अन्निचा..एक पद बोलते और सत्र समाप्त होता.

पांच बजे का घंटा राहत लाता, यह दिन के अंतिम भोजन अर्थात शाम की चाय का समय था. जिसके साथ कोई एक फल तथा मूड़ी दी जाती जिसमें दो-चार दाने मूँगफली के और भुजिया पड़ी होती. सभी बहुत स्वाद लेकर इस का आनंद लेते. उसके बाद सभी शाम की हवा का आनंद लेते टहलने लगते. धीरे-धीरे चलते हुए अपने भीतर खोये साधक अन्यों की उपस्थिति से बेखबर प्रतीत होते थे. सभी के मन का पुनर्निर्माण आरम्भ हो चुका था. छह बजे पुनः घंटी बजती और सात बजे तक ध्यान चलता. फिर पांच मिनट का विश्राम तथा उसके बाद गोयनकाजी का प्रवचन आरम्भ होता जो साढ़े आठ बजे तक चलता, जिसमें दिन भर में हुई साधना के बारे में तथा आने वाले दिन के लिए साधना के निर्देश दिए जाते तथा विधि को समझाया जाता. यह प्रवचन ज्ञानवर्धक तो था ही, प्रेरणादायक भी था. जिसके बाद पुनः पांच मिनट का विश्राम फिर रात्रि पूर्व का अंतिम ध्यान.


नौ बजे घंटा बजता और जिन्हें साधना संबंधी कोई प्रश्न पूछना हो वह आचार्य या आचार्या से साढ़े नौ बजे तक पूछ सकते थे. शेष कमरे में आकर सोने की तैयारी करते. पर दिन भर ध्यान करने से सचेत हुआ मन नित नये स्वप्नों की झलक दिखाता. बीते हुए समय की स्मृतियाँ इतने स्पष्ट रूप से सम्मुख आतीं मानो आज ही वह घटना घट रही हो. जिनके साथ कभी मन मुटाव हुआ था उनसे सुलह हो गयी. मन के भीतर एक अपार संसार है इसका प्रत्यक्ष अनुभव होने लगा. एक रात्रि तो हजारों कमल खिलते देखे. हल्के बैगनी रंग के फूल फिर रक्तिम आकृतियाँ...वह रात्रि बहुत विचलित करने वाली थी. आंख खोलते या बंद करते दोनों समय चित्र मानस पटल पर स्पष्ट रूप से चमकदार रंगों में आ रहे थे. ऐसी सुंदर कलाकृतियाँ शायद कोई चित्रकार भी न बना पाए. हरे-नीले शोख रंगों की आकृतियाँ बाद में भय का कारण बनने लगीं. उनका अंत नहीं आ रहा था. फिर कुछ लोग दिखने लगे. एक बैलगाड़ी और कुछ अनजान स्थानों के दृश्य. जगती आँखों के ये स्वप्न अनोखे थे. एक बार तो आँख खोलने पर मच्छर दानी के अंदर ही आकाश के तारे दिखने लगे, फिर उठकर चेहरा धोया, मून लाइट जलाई. रूममेट भी उठ गयी थी पर कोई बात तो करनी नहीं थी, सोचा आचार्यजी के पास जाऊँ पर रात्रि के ग्यारह बज चुके थे. पहली बार घर वालों का ध्यान भी हो आया. जिनसे पिछले कुछ दिनों से कोई सम्पर्क नहीं था. फिर ईश्वर से प्रार्थना की (जिसके लिए मना किया गया था) तय किया कि कल से आगे कोई ध्यान नहीं करूंगी. वह छठा दिन था. बाकी चार दिन सेवा का योगदान ही दूंगी. लगभग दो बजे तक इसी तरह नींद नहीं आयी, बाद में सो गयी. सुबह चार बजे नहीं उठ सकी, सोच लिया था अब आगे साधना करनी ही नहीं है. छह बजे मंगल पाठ के वक्त गयी. आधा घंटा बैठी रही. आठ बजे के ध्यान से पूर्व ही आचार्या से मिलकर जब सारी बात कही तो शांत भाव से उन्होंने कहा, यह तो बहुत अच्छा हो रहा है, मन की गहराई में छिपे अनेक तरह के संस्कार बाहर निकल रहे हैं. इसमें डरने की जरा भी आवश्यकता नहीं है, आपको तो फूल दिखे, किसी-किसी को भूत-प्रेत दीखते हैं तथा सर्प आदि भी. उन्होंने कहा, समता में रहना ही तो सीखने आयी हैं. यदि भविष्य में ऐसा हो तो मात्र साक्षी भाव से हाथ व पैर के तलवे पर ध्यान करना ठीक होगा. उनकी बात सुनकर पुनः पूरे जोश में साधना में रत हो गयी. विपासना का मूल सिद्धांत ‘साक्षी’ और ‘समता’ के रूप में याद रखने को कहा था. अगले दिन जब ऐसा हुआ तो कुछ भी विचित्र नहीं लगा, श्वास पर ध्यान देने व उनके बताये अनुसार ध्यान करने से सब ठीक हो गया. 

सोमवार, जनवरी 19

शहंशाहों की रीत निराली

शहंशाहों की रीत निराली

मंदिर और शिवाले छाने
कहाँ-कहाँ नहीं तुझे पुकारा,
चढ़ी चढ़ाई, स्वेद बहाया
मिला न किन्तु कोई किनारा !

व्रती रहे, उपवास भी किये
अनुष्ठान, प्रवास अनेकों,
योग, ध्यान, साधना साधी
माला, जप, विश्वास अनेकों !

श्राद्ध, दान, स्नान पुण्य हित
किया सभी कुछ तुझे मान के,
सेवा के बदले तू मिलता
झेले दुःख भी यही ठान के !

किन्तु रहा तू दूर ही सदा
अलख, अगाध, अगम, अगोचर
भीतर का सूनापन बोझिल
ले जाता था कहीं डुबोकर !

तभी अचानक स्मृति आयी
सदगुरु की दी सीख सुनाई,
कृत्य के बदले जो भी मिलता
कीमत उससे कम ही रखता !

जो मिल जाये अपने बल से
मूल्य कहाँ उसका कुछ होगा ?
कृत्य बड़ा होगा उस रब से
पाकर उसको भी क्या होगा ?

कृपा से ही मिलता वह प्यारा
सदा बरसती निर्मल धारा,
चाहने वाला जब हट जाये
तत्क्षण बरसे प्रीत फुहारा !

वह तो हर पल आना चाहे
कोई मिले न जिसे सराहे,
आकाक्षाँ चहुँ ओर भरी है
किससे अपनी प्रीत निबाहे !

इच्छाओं से हों जब खाली
तभी समाएगा वनमाली,
स्वयं से स्वयं ही मिल सकता
शहंशाहों की रीत निराली !

मंगलवार, जुलाई 16

अग्नि एक संकल्प की जगे

अग्नि एक संकल्प की जगे




जाना है दूर अति सुदूर
पावों में पड़ी हैं बेड़ियाँ ,
कांटे बिखरे कदम-कदम पर
पुकारतीं किन्तु रण भेरियां !

एक युद्ध लड़ा जाना है
यात्रा इक आमन्त्रण देती,
आरोहण उच्च आकांक्षा का
ज्योति एक निमन्त्रण देती !

एक लक्ष्य साधना है पावन
‘कुछ’ तो अनावृत करना है,
नन्हे-नन्हे स्फुलिंगों से  
मन का अंधकार भरना है !

चमकीले रंगो वाले कुछ
जगत अनोखे कहीं छिपे हैं,
आओ उनको ढूँढ़ निकालें
छाया जिनकी यहीं कहीं है !

 दस्यु छिपे हैं अंधकार में
छिप कर वार किया करते,
निर्मल मन के शीतल जल में
विष की धार भरा करते !

अग्नि एक संकल्प की जगे
ज्योति प्रखर रोशन सब कर दे
एक ऊष्मा अमर प्रेम की
प्रज्ज्वलित कण-कण नभ तक कर दे