कवि से
स्वप्न शील, हे रचनाकार !
उर में कोटि राज छिपाए,
गीत गा रहे युगों-युगों से
अंतर कोष भरा रह जाये !
सृजन शील, हे कलाकार !
नित नूतन तुम शब्द ढालते
नेह मदिरा भर-भर अविरत
प्यासे अधरों पर वारते !
सत्यशील, तुम हो द्रष्टा !
दिव्य दृष्टि पाकर हो हर्षे,
अनावृत तत्व हो जाता
उदघाटित सत्य जब बरसे !
हृदय तुम्हारा कोमल कलि सा
किन्तु शिला सा धैर्य धरे,
सुख में भीगा, कंपा हर दुःख में
निष्कंटक करते पथ चलते !
नहीं ध्येय जग माने तुमको
यही काम्य हर अश्रु लूँ हर,
नहीं हेय जगत में कोई
देखूँ जड़ को भी चेतन कर !
अनिता निहालानी
२७ मई २०११
बहुत खूब....तभी कहते हैं जहाँ न पहुँचे रवि वहां पहुँचे कवि....शानदार |
जवाब देंहटाएंनहीं हेय जगत में कोई
जवाब देंहटाएंदेखूँ जड़ को भी चेतन कर !
यह कवि मन ही होता है जो लगातार कुछ न कुछ सोचता रहता है और उसकी सोच शब्दों में ढल कर नए आयाम स्थापित भी कर सकती है.
बहुत अच्छी लगी यह कविता भी.
सादर
आपके मंगल भाव वन्दनीय हैं.....
जवाब देंहटाएंनमन है आपका और आपकी रचनाधर्मिता का ...
कवि और उसकी सोच शब्दों में ढल कर नए आयाम स्थापित भी कर सकती है.अच्छी लगी कविता ......
जवाब देंहटाएंआपकी हर रचना की तरह यह रचना भी बेमिसाल है !
जवाब देंहटाएंस्वप्न शील, हे रचनाकार !
जवाब देंहटाएंउर में कोटि राज छिपाए,
गीत गा रहे युगों-युगों से
अंतर कोष भरा रह जाये !
बहुत सुंदर रचना. बहुत अच्छी लगी यह कविता. धन्यबाद.
बहुत सुन्दर भावाव्यक्ति।
जवाब देंहटाएंप्रेरक उदबोधन
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर प्रस्तुति ..आभार
जवाब देंहटाएंनहीं हेय जगत में कोई
जवाब देंहटाएंदेखूँ जड़ को भी चेतन कर !
sunder hriday udgar ...!!badhai.