शनिवार, मई 21

आज एक पुरानी कविता


याद तुम्हारी

हरी दूब, पंछी के पर सी
छूती मन को आहिस्ता से
कुछ गुनगुन कानों में करती
श्वासों के सँग गिरती-उठती
नीले आसमान सी निर्मल
याद तुम्हारी !

याद तुम्हारी फैली जल में
बिखरी फूल-फूल के दल में
प्रातः पवन में, सांध्य स्वप्न में
छत के हर सूने कोने में
सीढ़ी के खालीपन में भी
पुस्तक के इक इक पन्ने में
याद तुम्हारी !

चिडियों की चीं चीं में मिलती
मिट्टी की खुशबू में खिलती
दूर दूर तक नजर मिलाती
कभी निकट आकर सहलाती
अधरों के स्मित हास में गुपचुप
नयनों की मुस्कान में चुपचुप
मेरे पेन में, बुक शेल्फ में
लिखने वाली मेज पे सोयी
याद तुम्हारी !

अनिता निहालानी
२१ मई २००१
  

6 टिप्‍पणियां:

  1. एक बहुत सुन्दर शब्दचित्र उकेरती भावपूर्ण रचना ...आभार

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  2. अति सुन्दर.......लाजवाब |

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  3. अंतिम पैरा सबसे अच्छा लगा.
    आपकी हर कविता पाठक के सामने एक चित्र भी प्रस्तुत करती है जिसे महसूस करने से रोचकता और बढ़ जाती है.

    सादर

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  4. बहुत खूबसूरती से याद को उकेर दिया है ... सुन्दर रचना

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  5. याद तुम्हारी फैली जल में
    बिखरी फूल-फूल के दल में

    जल में धुल कर अदृश्य परन्तु सार्व व्यापी साथ ही पंखुड़ियों जैसे सुन्द विखरती और दृश्य भी. बागुन और निर्गुण दोनों ही स्वरुप में औचित्य पूर्ण. बहुत सुन्दर, भावों में डुबो देने वाली सरस , सरल और पवित्र रचना.

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  6. चिडियों की चीं चीं में मिलती
    मिट्टी की खुशबू में खिलती
    दूर दूर तक नजर मिलाती
    कभी निकट आकर सहलाती
    अधरों के स्मित हास में गुपचुप
    नयनों की मुस्कान में चुपचुप
    मेरे पेन में, बुक शेल्फ में
    लिखने वाली मेज पे सोयी
    याद तुम्हारी
    sundar bhavabhivyakti ye to samanya tippani ke roop me likhna hoga kintu kya karoon aapki bhavabhivyakti ne man yadon ke ghere me pahucha diya aabhar.

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