गुरुवार, अगस्त 18

वह आज भी प्रतीक्षा रत है...


वह आज भी प्रतीक्षा रत है...

उसने दिये हमें झरोखे ताकि 
झांक सकें हम सुंदर सृष्टि
और घर लौट कर उससे कहें...

घर की सुरक्षा में
जैसे पिता देता है ताकत बच्चे को
दिन भर घूमकर आए और
शाम को विश्रांति पाए
कुछ कहे, कुछ सुने
विशुद्ध आनंद का लेन-देन हो
और पाएँ सब साहचर्य का सुख

पर हम तो बाहर गए तो
रह गए बाहर के ही होकर...
भीतर का रास्ता ही भूल गए
साधन को ही साध्य बना डाला हमने
सुख ढूँढने लगे उनमें
और यह भी नहीं पता कि जाना है कहाँ
पाना है क्या.. भूल ही गए
कि... घर भी लौटना है
वह प्रतीक्षा रत है... आज भी...  

8 टिप्‍पणियां:

  1. घर की याद दिला रही है ...आपकी रचना ...
    आभार....

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  2. भूल ही गए
    कि... घर भी लौटना है
    वह प्रतीक्षा रत है... आज भी...

    बहुत मर्मस्पर्शी रचना..आभार

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  3. अनीता जी आप की प्रत्येक प्रस्तुति मन को गहरे तक छू जाती है.ये प्रस्तुति भी उससे इतर नहीं है आभार.हमें इतनी शानदार काव्य प्रस्तुति से जोड़ने के लिए.

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  4. सही बात है........बाहर में ही रम जाता है मन......भीतर की तो याद ही नहीं रहती|

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