मुक्त गगन सा गीत गा सके
‘सावधान’ का बोर्ड लगाये
हर कोई बैठा है घर में,
मिलना फिर कैसे सम्भव हो
लौट गया वह तो बाहर से !
या फिर चौकीदार है बुद्धि
साहब से मिलने न देती,
ऊसर ऊसर ही रह जाता
अंतर को खिलने न देती !
प्राणों का सहयोग चाहिए
भीतर वह प्रवेश पा सके,
सत्य को जो भी पाना चाहे
मुक्त गगन सा गीत गा सके !
प्रकृति अपने गहन मौन में
निशदिन उसकी खबर दे रही,
सूक्ष्म इशारे करे विपिन भी
गुपचुप वन की डगर कह रही !
पल में नभ पर बादल छाते
गरज-गरज कर कुछ कह जाते
पानी का बौछारें भी तो
पाकर कितने मन खिल जाते !
जो भी कुछ जग दे सकता है
शब्दों में ही घटता है वह,
लेकिन सच है पार शब्द के
जो निशब्द में ही मिलता है !
जो भी कुछ जग दे सकता है
जवाब देंहटाएंशब्दों में ही घटता है वह,
लेकिन सच है पार शब्द के
जो निशब्द में ही मिलता है !
....बहुत सुन्दर और गहन अभिव्यक्ति..आभार
कैलाश जी, स्वगत व आभार !
हटाएंवाह वाह.....बहुत ही सुन्दर......शुरू के दो पैरे दो लाजवाब हैं ।
जवाब देंहटाएंइमरान,तारीफ का शुक्रिया..
हटाएं
जवाब देंहटाएंमानसिक कुहांसे और हमारे मनो सामाजिक,दफ्तरी परिवेश का खूब सूरत खुलासा हुआ है इस रचना में .
वीरू भाई, हमारा मन भी तो दफ्तर से कम नहीं..
हटाएंबहुत सुन्दर ...
जवाब देंहटाएंया फिर चौकीदार है बुद्धि
जवाब देंहटाएंसाहब से मिलने न देती,
ऊसर ऊसर ही रह जाता
अंतर को खिलने न देती !
जो भी कुछ जग दे सकता है
शब्दों में ही घटता है वह,
लेकिन सच है पार शब्द के
जो निशब्द में ही मिलता है !
बहुत सुन्दर...
पूरी रचना ही अपने आप में सुन्दर भाव से परिपूर्ण है....!
बधाई....एवं....धन्यवाद एकसाथ...!
पूनम जी,बहुत बहुत आभार !
हटाएंप्राणों का सहयोग चाहिए
जवाब देंहटाएंभीतर वह प्रवेश पा सके,
सत्य को जो भी पाना चाहे
मुक्त गगन सा गीत गा सके !
बहुत सुंदर भाव ।
very nice
जवाब देंहटाएंवाह ... क्या बात है बहुत ही बढिया।
जवाब देंहटाएंमहेश्वरी जी, सदा जी, संगीता जी व सिंह जी अप सभी का स्वागत व् आभार !
जवाब देंहटाएंएकदम मेरे ह्रदय के भावों को शब्द दे दिया है ..
जवाब देंहटाएंतब तो बात पक्की हो गयी कि परम प्रेम में दिल एक से धड़कते हैं..
हटाएंkya bat hai bahut sunadar..
जवाब देंहटाएंsahi kaha aapne
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