जहाँ हैं हम अक्सर वहाँ नहीं होते, तभी तो उसके दरस
नहीं होते
जिंदगी कैद है दो कलों में, आज को दो पल मयस्सर नहीं
होते
जनवरी की रेशमी, गुनगुनी धूप
सहलाती है तन को
बालसूर्य की लोहित रश्मियाँ
लुभाती हैं मन को..
रह-रह के भर जाती है
कुसुम गंध नासपुटों में
बोगेनविला की पत्तियों से
टपकती ओस की बूँदे
अंतर भिगाती हैं..
झरे हुए पुष्पों की पंखुरियाँ
बिछ जाती हैं जब धरा पर
जीवन को उसकी सुंदरता का
अहसास हैं कराती
अम्बर की नीलिमा
लिए जाती है स्वप्न लोक
कूजन खगों की
ज्यों लोरी सुनाती है
पत्तों की सरसराहट, ज्यों
पवन पायल छनकाती है
गुलाबी रंगत कलिका की
कराती है मिलन का अहसास
हर शै कुदरत की ओ खुदा !
तेरी याद है दिलाती
इतनी सुंदर थी यह दुनिया
क्या पहले भी...
तुझसे इश्क के बाद
नजर जो आती है
दूब के तिनके की हरी नोक भी
सुख सरिता बहाती है यहाँ
सड़क पर जाते हुए
हरकारे की आवाज भी
कैसी जगाती है हूक
श्रमिक की खुरपी मानो
जन्नत का संदेश सुनाती है
रचा जा रहा है हर पल
कुछ न कुछ, यह बात
आज समझ में आती है
सूर्य की आभा में लॉन की घास
जब चमचमाती है
वृक्षों की डालियाँ अनोखी
छटा भर मुस्काती हैं !
सुहाने मौसम का समां बाँधती सुन्दर रचना ।
जवाब देंहटाएंशुक्रिया इमरान
हटाएंभाव पूर्ण प्रस्तुति |
जवाब देंहटाएंबधाई आदरेया ||
बहुत प्यारी रचना....
जवाब देंहटाएंप्रकृति से इश्क हुआ जाता है इन दिनों....
सादर
अनु
सचमुच !
हटाएंआपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल शनिवार (19-1-2013) के चर्चा मंच पर भी है ।
जवाब देंहटाएंसूचनार्थ!
वन्दना जी, बहुत बहुत आभार !
हटाएंशुक्रिया आपकी सद्य टिपण्णी का .
जवाब देंहटाएंसुन्दर मनोहर
बहुत भावमयी शब्द चित्र...
जवाब देंहटाएंअति सुन्दर व मनमोहक रचना.....
जवाब देंहटाएंआभार !
हटाएंरविकर जी, वीरू भाई व कैलाश जी आप सभी का स्वागत व आभार !
जवाब देंहटाएंवातावरण प्रधान मनो वज्ञानिक तत्व विश्लेषण समेटे है यह रचना अपना ही रूपकत्व लिए आंच लिए अभिनव शब्दों की .शुक्रिया आपकी सद्य टिप्पणियों का .
जवाब देंहटाएंकविता में इतना सब है यह तो आपकी टिप्पणी से ही पता चला...शुक्रिया!
हटाएंयह सुंदर छटा नज़रों में बनी रहे , मंगल कामनाएं आपको !
जवाब देंहटाएंजहाँ हैं हम अक्सर वहाँ नहीं होते, तभी तो उसके दरस नहीं होते
जवाब देंहटाएंजिंदगी कैद है दो कलों में, आज को दो पल मयस्सर नहीं होते.
प्रकृति का सामीप्य एक अद्भुत अहसास का समावेश कर देता है जीवन में. बेहतरीन प्रस्तुति.
रचना जी, वाकई कुदरत हमें इतना कुछ देती है कि समेटे नहीं सिमटता..
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