गंगा बहकर जाये सागर
घोर घटाओं में विद्युत् जब
चमक चमक लहरा कर गाती,
गिरने लगतीं बूंदें तड़ तड़
गर्जन घन की नहीं डराती !
घटाटोप सा छाता नभ पर
खो जाती वह शुभ्र नीलिमा,
दूर कहीं से हंसों की इक
पंक्ति फर से उड़ती जाती !
पवन भीग कर थिर हो जाता
हौले-हौले पात डोलते,
चहबच्चों में भर जाता जल
बूँदें गिर कर वृत्त बनातीं !
कुछ निशब्द घास पर गिरतीं
धातु पर कुछ शोर मचातीं,
ध्वनि अनेक जल धार एक है
हर शै उसकी गाथा गाती !
वृष्टि का क्रम चलता अविरत
धरा लहक लहक मुस्काती,
गंगा बहकर जाये सागर
सागर से ही जल भर लाती !
उसी भंडार से आता है वृष्टि का जल और उसी में समा जाता है ,
जवाब देंहटाएंसृष्टि का क्रम भी तो यही है .
वर्षा की बूंदों के संगीत सी बहुत मधुर और प्रभावी अभिव्यक्ति...
जवाब देंहटाएंआलम्बन रूप में वर्षा का मनोहर चित्रमय वर्णन है । घटाओं का छाना , नीलाम्बर का खोजाना , और श्यामाभा के बीच हंसों की पंक्ति ..एक सुन्दर दृश्य दिखाई दे रहा है । बहुत सुन्दर ।
जवाब देंहटाएंरविकर जी, प्रतिभा जी कैलाश जी व गिरिजा जी, आप सभी सुधी पाठकों का स्वागत व आभार !
जवाब देंहटाएंवाह...सुन्दर पोस्ट...
जवाब देंहटाएंसमस्त ब्लॉगर मित्रों को हिन्दी दिवस की शुभकामनाएं...
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