गुरुवार, फ़रवरी 2

प्रीत बहे धार सी




प्रीत बहे धार सी

मन सपने बुनता है 
फिर-फिर सिर धुनता है,
जीवन की बगिया से 
कांटे ही चुनता है ! 

जन्नत बनाने का 
भीतर सामान है, 
दोजख की आग में 
व्यर्थ ही भुनता है !

स्वयं को ही कैद करे 
झूठी दीवारों में,
ख्वाबों में गाए कभी  
गीत वही सुनता है !

मन जो ठहर जाये 
 डोर कोई थाम ले,
प्रीत बहे धार सी 
मन्त्र सा गुनता है !






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