सोमवार, मार्च 6

एक बीज बोया अंतर में


एक बीज बोया अंतर में


 ऊपर कितना ही साधा हो 
एक खोज भीतर चलती है, 
नहीं यहाँ विश्राम किसी को 
सदा वही पथ पर रखती है !

किन्तु अनोखे राहीगर हम 
हर पड़ाव पर खेमे गाड़े,
जैसे मिल ही गयी हो मंजिल
हुए बेखबर खुद से हारे !

जाग रहा है भीतर कोई 
रहे ताकता पल-पल जैसे,
बाहर ही बाहर हम तकते 
मिलन घटे फिर उससे कैसे !

है अनंत धैर्यशाली वह 
किन्तु डसे अधीरता मन को,
प्रीत पगा वह सहज डोलता 
मुरझाया उर तपन सहे जो !

श्वासों की अलख डोरी सा 
मिल सकता पर नहीं मिला है 
एक बीज बोया अंतर में 
खिल सकता पर नहीं खिला है !



7 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी ब्लॉग पोस्ट को आज की ब्लॉग बुलेटिन प्रस्तुति ब्लॉग बुलेटिन - आप सभी को लठ्ठमार होली (बरसाना) की हार्दिक बधाई में शामिल किया गया है। सादर ... अभिनन्दन।।

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  2. प्रेम की खुराक ज़रूरी है अंतस के बीज को खिलने की ... भावपूर्ण रचना

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    1. सही कहा है आपने, प्रेम का बीज तो प्रेम से ही पनपेगा..

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  3. खिलेगा और नया बीज भी फिर मिलेगा । सुन्दर रचना ।

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    1. इसी आशा और विश्वास की आवश्यकता है प्रेम के इस बीज को खिलने के लिए..

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