गुरुवार, मई 11

मन सिमटा आंगन में जैसे


मन सिमटा आंगन में जैसे


फिर घिर आये मेघ गगन पर
फिर गाए अकुलाई कोकिल,
मौसम लौट लौट आते हैं,
जीवन वर्तुल में खोया मन !  

वही आस सुख की पलती है
वही कामना दंश चुभोती,
मन सिमटा आंगन में जैसे
दीवारें चुन लीं विचार की !

मन शावक भी यदि निशंक हो,
 तोड़ कैद उन्मुक्त हुआ सा,
एक नजर भर उसे ताक ले
द्वार खुलेगा तब अनंत का !

निकट कहीं वंशी धुन बजती
टेर लगाता कोई गाये,
निज कोलाहल में डूबा जो  
रुनझुन से वंचित रह जाये !


2 टिप्‍पणियां: