गुरुवार, अप्रैल 26

कोई देख-देख हँसता है



कोई देख-देख हँसता है

आँख मुँदे उसके पहले ही
क्यों ना खुद से नजर मिला लें,
अनदेखे, अनजाने से गढ़
भेद अलख के मोती पा लें !

कितना पाया पर उर रीता
झांकें, इसकी पेंदी देखें,
कहाँ जा रहा आखिर यह जग
तोड़ तिलिस्म जाग कर लेखें !

बार-बार कृत-कृत्य हुआ है
फिर क्यों है प्यासा का प्यासा,
किस कूँए से तृषा बुझेगी
आखिर इसको किसकी आसा !

सुंदरता को बाँध न पाया
देखे कितने सागर, पर्वत,
कहीं और कुछ छूटा जाता
सदा बनी पाने की हसरत !

सुख का आकांक्षी यह उर है
जाने किसकी राह जोहता,
पा पाकर भी कुछ ना पाया
ज्यों तामस में बाट टोहता !

मंजिल पर बैठा राही जब
राह पूछता बन अनजाना,
कोई देख-देख हँसता है
जैसे खेले इक दीवाना !

3 टिप्‍पणियां:

  1. आदरणीय / आदरणीया आपके द्वारा 'सृजित' रचना ''लोकतंत्र'' संवाद मंच पर 'सोमवार' ३० अप्रैल २०१८ को साप्ताहिक 'सोमवारीय' अंक में लिंक की गई है। आमंत्रण में आपको 'लोकतंत्र' संवाद मंच की ओर से शुभकामनाएं और टिप्पणी दोनों समाहित हैं। अतः आप सादर आमंत्रित हैं। धन्यवाद "एकलव्य" https://loktantrasanvad.blogspot.in/

    टीपें : अब "लोकतंत्र" संवाद मंच प्रत्येक 'सोमवार, सप्ताहभर की श्रेष्ठ रचनाओं के साथ आप सभी के समक्ष उपस्थित होगा। रचनाओं के लिंक्स सप्ताहभर मुख्य पृष्ठ पर वाचन हेतु उपलब्ध रहेंगे।

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