सोमवार, फ़रवरी 3

पारिजात हों उपवन में

पारिजात बिखरें उपवन में

मानस हंस ध्यान के मोती 

चुन-चुन कर पुलकित होता है , 

सुमिरन की डोरी में जिसको 

अंतर मन निरख पिरोता है  !


मुस्कानों में छलक उठेगी  

सच्चे मोती की शुभ आभा, 

जिसने पहचाना है सच को  

इस दुनिया में वही सुभागा !


ध्यान बिना अंतर है मरुथल 

मन पंछी भी फिरे उदासा,

रस की भीनी धार बह रही  

वह है क्यों प्यासा का प्यासा !


कोई भी जो डुबकी मारे 

छू ही लेता उस पनघट को, 

अमृत छलके जहाँ अनवरत 

खोलो मन के घूँघट पट को !


ध्यान बरसता कोमल रस सा 

कण-कण काया का भी हुलसे, 

खोजें इक सागर गहरा सा 

व्यर्थ ताप में क्योंकर झुलसें !


तृप्त हुआ जब मन यह सुग्गा 

बस उसका ही नाम रटेगा, 

कृत-कृत्य हो  जगत में डोले 

जैसे मन्द समीर बहेगा !


या सुवास बनकर फैलेगा  

जगती  के इस सूनेपन में, 

शब्द सहज झरेंगे जैसे 

पारिजात बिखरें  उपवन में !


8 टिप्‍पणियां:

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  2. जी नमस्ते,
    आपकी लिखी रचना मंगलवार ४ फरवरी २०२० के लिए साझा की गयी है
    पांच लिंकों का आनंद पर...
    आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।

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  3. आध्यात्मिक रचना।
    ध्यान द्वारा ही हम देख सकते हैं वो झरना जो व्यक्ति की भटकन को मिटा सकता है।
    बहित ही लाजवाब रचना।

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  4. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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  5. तृप्त हुआ जब मन सुग्गा
    बस इक ही नाम रटेगा,
    कृत-कृत्य जगत में डोले
    ज्यों मन्द समीर बहेगा !
    वाह!!!
    बेहद लाजवाब...

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