कुदरत यही सिखाने आयी
घर में रहना भूल गया है
बाहर-बाहर तकता है मन,
अंतर्मुख हो रहे भी कैसे ?
नहीं नाम का सीखा सुमिरन !
घर में रहने को नहीं उन्मुख
शक्ति का जहाँ स्रोत छुपा है,
आराधन कर उस चिन्मय का
जिसमें तन यह मृण्मय बसा है !
कुदरत यही सिखाने आयी
कुछ पल रुक कर विश्राम करो,
दिन भर दौड़े-भागे फिरते
अब दुनिया से उपराम रहो !
हवा शुद्ध होगी परिसर की
धुँआ छोड़ते वाहन ठहरे,
पंछी अब निर्द्वन्द्व उड़ेंगे
आवाजों के लगे न पहरे !
धाराएँ भी निर्मल होंगी
दूषित पानी नहीं बहेगा,
श्रमिकों को विश्राम मिलेगा
उत्पादन यदि अल्प घटेगा !
आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 26.3.2020 को चर्चा मंच पर चर्चा - 3652 में दिया जाएगा। आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ाएगी
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
दिलबागसिंह विर्क
बहुत बहुत आभार !
हटाएंनमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" में गुरुवार 26 मार्च 2020 को साझा की गयी है......... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
बहुत बहुत आभार !
हटाएंआशा ही जीवन है।
जवाब देंहटाएंसही कहा है आपने, आशा और उल्लास के बिना जीवन जीवन ही नहीं रहता !
हटाएंवाह!बेहतरीन !
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार शुभा जी !
हटाएंसटीक।
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार !
हटाएंकुदरत की ही मार है यह....अति भागमभागी और वैज्ञानिक आविस्कारों के बल पर कुदरत को चुनौती दे रहे थे हम....आज उसकी चुनौती है
जवाब देंहटाएंबहुत ही लाजवाब सृजन
वाह!!!
स्वागत व आभार सुधा जी !
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