जब राज खुलेगा इक दिन यह
जो द्रष्टा है वह दृश्य बना
स्वप्नों में भेद यही खुलता,
अंतर बंट जाय टुकड़ों में
फिर अनगिन रूप गढ़ा करता !
सुख स्वप्न रचे, हो आनन्दित
दुःख में खुद नर्क बना डाले,
कभी मुक्त मगन उड़ा नभ में
कभी गह्वर, खाई व नाले !
जो डरता है, खुद को माना
जो डरा रहे, हैं दूजे वे,
खुद ही है कौरव बना हुआ
बाने बुन डाले पांडव के !
जब राज खुलेगा इक दिन यह
मन विस्मित हो कुछ ढगा हुआ,
स्वप्नों से जगकर देखेगा
मैं ही था सब कुछ बना हुआ !
मैं ही हूँ, दूजा यहाँ नहीं
यह मेरे मन की माया थी,
वे दुःस्वप्न सभी ये सुसपने
केवल अंतर की छाया थी !
भावपूर्ण।
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार !
हटाएंबहुत सुन्दर काव्य।
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार !
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