ऊँघता मधुमास भीतर
अनसुनी कब तक करोगे
टेर वह दिन-रात देता,
ऊँघता मधुमास भीतर
कब खिलेगा बाट तकता !
विकट पाहन कन्दरा में
सरिता सुखद इक बह रही,
तोड़ सारे बाँध झूठे
राह देनी है उसे भी !
एक है कैलाश अनुपम
प्रकृति पावन स्रोत भी है,
कुम्भ एक अमृत सरीखा
क्षीर सागर भी वहीं है !
दृष्टि निर्मल सूक्ष्म जिसकी
राह में कोई न आये,
बेध हर बाधा मिलन की
सत्य में टिकना सिखाये !
सादर नमस्कार,
जवाब देंहटाएंआपकी प्रविष्टि् की चर्चा शुक्रवार ( 04-12-2020) को "उषा की लाली" (चर्चा अंक- 3905) पर होगी। आप भी सादर आमंत्रित है।
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"मीना भारद्वाज"
बहुत बहुत आभार !
हटाएंसुन्दर
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर।
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार आप सभी सुधी जनों का !
जवाब देंहटाएंसार्थक लेखन।
जवाब देंहटाएंसुन्दर रचना।
जवाब देंहटाएंवाह, बहुत सुन्दर रचना!
जवाब देंहटाएंसुन्दर रचना।
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर
जवाब देंहटाएंक्षीर सागर में डुबकी लगाने जैसा ही है । अनुपम भाव ।
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