अब जब कि
अब जब कि हो गयी है सुबह
क्यों अंधेरों का जिक्र करें,
चुन डाले हैं पथ से कंटक सारे
क्यों पावों की चुभन से डरें !
अब जब कि छाया है मधुमास
अँधेरी सर्द रातों को भूल ही जाएँ,
खिले हैं फूलों के गुंचे हर सूं
क्यों दर्द को गुनगुनाएं !
अब जब कि धो डाला है मन का आंगन
आँधियां धूल भरी क्यों याद रहें,
सुवासित है हर कोना वहाँ
क्यों कोई फरियाद आये !
अब जब कि हो गया है मिलन
विरह में नैन क्यों डबडबायें
बाँधा है बंधन अटूट एक
भय दूरी का क्यों सताए !
क्यों अंधेरों का जिक्र करें,
चुन डाले हैं पथ से कंटक सारे
क्यों पावों की चुभन से डरें !
अब जब कि छाया है मधुमास
अँधेरी सर्द रातों को भूल ही जाएँ,
खिले हैं फूलों के गुंचे हर सूं
क्यों दर्द को गुनगुनाएं !
अब जब कि धो डाला है मन का आंगन
आँधियां धूल भरी क्यों याद रहें,
सुवासित है हर कोना वहाँ
क्यों कोई फरियाद आये !
अब जब कि हो गया है मिलन
विरह में नैन क्यों डबडबायें
बाँधा है बंधन अटूट एक
भय दूरी का क्यों सताए !
सार्थक और सन्देशप्रद रचना।
जवाब देंहटाएंउत्साहवर्धक पोस्ट
जवाब देंहटाएंअब जब कि हो गया है मिलन
जवाब देंहटाएंविरह में नैन क्यों डबडबायें
बाँधा है बंधन अटूट एक
भय दूरी का क्यों सताए !..सशक्त और सारगर्भित रचना..।
सुवासित रहता है यहां का हर कोना सदा से ही । अत्यंत मनोहारी ।
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर रचना
जवाब देंहटाएंशास्त्री जी, यशवंत जी, जिज्ञासा जी, अमृता जी, ओंकार जी तथा अनुराधा जी आप सभी का हृदय से स्वागत व आभार !
जवाब देंहटाएंबीती ताही बिसार दे आगे की सुधि लेय ।
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर आशा संचार करता सृजन।
स्वागत व आभार !
हटाएंजो है उसको स्वीकार करना और सजह करना बहुत जरूरी है ...
जवाब देंहटाएंकल की बात्रें याद बनके रह जाती हैं ...
सुन्दर सृजन ...
स्वागत व आभार !
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