रविवार, सितंबर 19

​​​​​​एक हँसी भीतर सोयी है

​​​​​​एक हँसी भीतर सोयी है 


रुनझुन-झुन धुन जहाँ गूंजती

एक मौन भीतर बसता है,

मधुरिम मदिर ज्योत्सना छायी

नित पूनम निशिकर  हँसता है !


निर्झर कोई सदा बह रहा 

एक हँसी भीतर सोयी है, 

अंतर्मन की गहराई में 

मुखर इक चेतना सोयी है !


जैसे कोई पता खो गया 

एक याद जो भूला है मन, 

भटक रहा है जाने कब से 

सुख-दुःख में ही झूला है तन !


ज्यों इक अणु की गहराई में 

छिपी ऊर्जा  है अनंत इक, 

एक हृदय की गहराई में 

छिपा हुआ है ​​​​कोई रहबर !



13 टिप्‍पणियां:

  1. जी नमस्ते ,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार(२०-०९-२०२१) को
    'हिन्दी पखवाड़ा'(चर्चा अंक-४१९३)
    पर भी होगी।
    आप भी सादर आमंत्रित है।
    सादर

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  2. गूढ़ार्थ युक्त अच्छी कविता है यह आपकी। अभिनंदन। द्वितीय पद की अंतिम पंक्ति को 'मुखर चेतना इक सोयी है' लिखना सम्भवतः अधिक उपयुक्त रहता।

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    1. आपका सुझाव अति समुचित है, स्वागत व आभार!

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  3. मन ही तो अनेक अलंकरण की खान है !!बहुत सुंदर !!

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  4. ज्यों इक अणु की गहराई में
    छिपी ऊर्जा है अनंत इक,
    एक हृदय की गहराई में
    छिपा हुआ है ​​​​कोई रहबर !
    ----
    अध्यात्मिक भाव लिए अत्यंत सुंदर सृजन।
    सादर।

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  5. बहुत ही सुंदर अभिव्यक्ति!
    अत्यंत गहरे भाव!

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  6. हँसी की रूनझुनी खनक आह्लादित कर रही है । सदैव की भांति अति सुन्दर भाव सृजन ।

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