सोमवार, जनवरी 24

श्वासों की माला जपनी थी

श्वासों की माला जपनी थी


जो हीरे तूने सौंपे थे 

पत्थर सम हमने गँवा दिए, 

अमृत की खानें छिपी भीतर 

भयभीत गरल से कंपा किए !


शीतलता भरता था सुमिरन 

जग की आँधी में उड़ा दिया, 

श्वासों की माला जपनी थी 

सपनों, नींदों में भुला दिया !


तू रहबर बनकर बैठा था 

आवाज़ लगाते हम रोए, 

कब तूने त्यागा था हमको 

रस्तों पर हम ही खोए थे !


रंगीनी, दुनिया की माया 

कुछ और नहीं मन है छाया, 

तू था प्रकाश का स्रोत खड़ा 

हम पीछा करते थे मन का !


जिसका ना रूप कभी ठहरे 

उस दुनिया के पीछे भागे, 

कब सपने झूठे छोड़े थे 

कब तेरी करुणा लख जागे !


तुझको पाया कोई कहता 

तू मुँह फेर हंसता होगा, 

पाना उसका जो खोया हो 

तू कण-कण में रमता होगा !


हम अनजाने से बन जाते 

तू कदम-कदम पर बिखरा है, 

तेरी आभा से रवि दमके 

चंदा रूप भी संवरा है !


9 टिप्‍पणियां:

  1. सादर नमस्कार ,

    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (25-1-22) को " अजन्मा एक गीत"(चर्चा अंक 4321)पर भी होगी।आप भी सादर आमंत्रित है..आप की उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ायेगी .
    --
    कामिनी सिन्हा

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  2. बहुत सुंदर अनिता जी,इतना समर्पण हो तो प्रभु हमसे दूर कहां।
    अध्यात्म और दर्शन समेटे सुंदर चिंतन ।

    तुझको पाया कोई कहता

    तू मुँह फेर हंसता होगा,

    पाना उसका जो खोया हो

    तू कण-कण में रमता होगा !
    शाश्वत से भाव।
    अतिसुंदर।

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. स्वागत व आभार कुसुम जी, समर्पणभाव बना रहे यही पसच्ची प्रार्थना है

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  3. तू रहबर बनकर बैठा था

    आवाज़ लगाते हम रोए,

    कब तूने त्यागा था हमको

    रस्तों पर हम ही खोए थे !
    बहुत ही उम्दा व सरहानीय

    जवाब देंहटाएं