कुदरत की होली
झांको कभी निज नयनों में
और थोड़ा सा मुस्कुराओ,
रंग भरने हैं अंतर में मोहक यदि
हाथ कुदरत से अपना मिलाओ !
नीले नभ पर पीला चाँद
रूपहले सितारों में जगमगाये
कभी स्याह बादलों में
इंद्र धनुष भी कौंध अपनी दिखाए !
हरे रंग से रंगी वसुंधरा
जिस पर अनगिन फूल टंके हैं
ज़रा संभल कर जाना पथ पर
तितलियों के झुंड उड़े हैं !
होली खेलती दिनरात यह कुदरत
जगाना उल्लास ही इसकी फ़ितरत
केवल आदमी लड़ाई के बहाने खोजता
जहाँ रंगों के अंबार लगते
तुच्छ बातों को एक मसला बना लेता !
रंग सजते बन उमंग जीवन में
भर जाते तरंग तन और मन में
अगर रंग भरने हैं सदा के लिए अंतर में
सहज हर भोर में
संग सूरज के खिलखिलाओ
हाथ कुदरत से अपना मिलाओ !
आपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा कल बुधवार (16-03-2022) को चर्चा मंच "होली की दस्तूर निराला" (चर्चा अंक-4371) पर भी होगी!
जवाब देंहटाएं--
सूचना देने का उद्देश्य यह है कि आप उपरोक्त लिंक पर पधार कर चर्चा मंच के अंक का अवलोकन करे और अपनी मूल्यवान प्रतिक्रिया से अवगत करायें।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत बहुत आभार!
हटाएंसुंदर अभिव्यक्ति
जवाब देंहटाएंकई रंगों में रंगी कुदरत की होली से बेहतर कुछ भी नहीं।
जवाब देंहटाएंबढ़िया रचना
जवाब देंहटाएंवाह!बहुत बढ़िया कुदरत की होली 👌
जवाब देंहटाएंसादर
ओंकार जी, यशवंत जी, सरिता जी व अनीता जी आप सभी का स्वागत व आभार !
जवाब देंहटाएंबहुत खूबसूरत है ये कुदरत के रंग सौंदर्य से सराबोर।
जवाब देंहटाएंसुंदर सृजन।
स्वागत व आभार!
हटाएंवाह
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुंदर सृजन