बुधवार, जून 1

पल पल इसको वही निखारे

पल पल इसको वही निखारे

दी उसने ही पीर प्रेम की 

दिलों में भर देता विश्वास, 

उड़ने को दो पंख दिए हैं

दिया अपार  अनंत आकाश !


वही बढ़ाये इन कदमों को 

नित रचता नूतन राहों को, 

लघुता झरी ज्यों बासी फूल 

सदा जगाया शुभ चाहों को !


कूके जो कोकिल कंठों से 

महक रहा सुंदर फूलों में, 

उससे ही यह विश्व सजा है 

सीख छिपी शायद शूलों में !


कोई भूला उसे न जाने 

दुःख अपने ही हाथों बोता, 

केवल निज सत्ता पहचाने 

नित दामन अश्रु से भिगोता !


स्वामी है जो सकल जहाँ का 

उसकी जय में खुद की जय है,

नाम सदा उसका ही लेना

उस संग हर कोई अजय है !


वही गगन, जल, अगन बना है वही हवा, धरती बन धारे, उसने ही यह खेल रचाया पल पल इसको वही निखारे !


हम उसके बनकर जब रहते 

सहज पुलक  में भीगा करते, 

उसकी मस्ती की गागर से  

छक-छक कर मृदु हाला पीते !


8 टिप्‍पणियां:

  1. "वही गगन, नीर, पावक बना, वही हवा, धरती बन धारे,
    उसने ही यह खेल रचाया, पल पल इसको वही निखारे !"
    इन्हीं शब्दों में उपानिषदों का सार छुपा है।

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    1. सही कह रहे हैं आप, परमात्मा जगत का उपादान कारण भी है और निमित्त कारण भी, स्वागत व आभार !

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  2. उस मालिक को याद रखें तो सब कुछ सरल है । बहुत सुंदर कृति ।

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    1. सही है, जिसने हमने रचा है उसे भूल कर हम खुश नहीं रह सकते, स्वागत व आभार !

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  3. वाह सारपूर्ण अभिव्यक्ति!!

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