मंगलवार, जनवरी 31

मन भी किसी और की माया

मन भी किसी और की माया


​​माटी से निर्मित यह भूमा

माटी से ही चोला तन का, 

माटी का भी स्रोत कहीं है 

ढूँढे वही यात्री मन का !


हर पदार्थ मन की छाया है 

मन भी किसी और की माया, 

निजता में ही मिलता शायद 

धुर नीरव  में नाद समाया !


ज्यों कुम्हार मन में रचता है 

फिर आकार बनें माटी के, 

उर संवेग भाव उमड़ें जब  

तब उढ़ाए वस्त्र शब्दों के !


  जग में मुक्त वही विचरे वपु 

मुदिता मद सम नीर उर भरे, 

 अकल्पनीय स्वप्न पलकों में

नहीं विकल्पों से कभी डरे !


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