शायद
तुम्हें पता नहीं है
तुम बहुत दिनों से मुस्कुराए नहीं हो
खिल जाता था तुम्हारा चेहरा
पहले जिन्हें देखकर
अब हँसना तो दूर
लगता है नाराज़ हो किसी से
या शायद ख़ुद से
छोटी-छोटी बातों पर
खिलखिला कर हंस देते थे
तुम्हारी वह निश्चल हँसी
पैसे कमाने में कहीं खो गई
तरक़्क़ी की चाह में बह
मुस्कान भी छोटी होती गई
तुम्हें ज्ञात ही नहीं
किस बात पर ख़फ़ा हो
अच्छी नहीं लगती
किसी की कोई सलाह तुम्हें
कहीं हो न जाओ और उदास
किसी को कुछ कहते भी तुमसे
डर लगता है
लेकिन एक बार तो
ज़ोर से खिलखिलाओ
दिल बार-बार कहता है !
आज की पीढ़ी पता नहीं किस दौड़ में शामिल होकर जीना ही भूल गई है
आभासी दुनिया में रहते-रहते वास्तविक जीवन की छोटी-छोटी ख़ुशियों को नज़र अंदाज़ कर रही है।
आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों के आनन्द में" सोमवार 17 जुलाई 2023 को लिंक की जाएगी .... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ... धन्यवाद! !
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार दिग्विजय जी!
हटाएंसटीक सुन्दर
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार!
हटाएंलेकिन एक बार तो
जवाब देंहटाएंज़ोर से खिलखिलाओ
दिल बार-बार कहता है ! ///
बहुत ही भावपूर्ण प्रस्तुति है प्रिय अनीता जी।पैसे की चाहत ने ना जाने कितनों की उन्मुक्त हँसी और मुस्कानों को छीन लिया!!🙏
वाक़ई आपने सही कहा है। धन का अपना स्थान है जो उसे मिलना चाहिए पर जीवन की आधारभूत चीजें धन से नहीं मिलतीं, अपने भीतर ही मिलती हैं। स्वागत व आभार रेणु जी!
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