अव्यक्त
कविता फूटती है
मन की भाव धरा पर
सिंचित होती है जब वह
प्रेम बुंदकियों से
प्रेम ! जो फैला है
कण-कण में परमात्मा की तरह
पर मिलता नहीं
तपे बिना
गहन अभीप्सा की अग्नि में !
कविता भाषा नहीं है
भाषा की आत्मा है
जो छुपी रहती है
अलंकारों और उपमाओं के आवरण में
एक सूक्ष्म भाव है यह
जो छू जाता है
अंतस् को
ऊष्मा ले जहाँ से
वाष्पित होता हुआ
उमड़ आता है
नि:श्वास बनकर
और कभी-कभी
आकार ले लेता है शब्दों का
वरना तो
उड़ जाता है आकाश में
अव्यक्त ही !
व्यक्त हो जाये तो कविता सजीव हो उठती है ... जैसे बरस जाए बादल तो बरखा ...
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार !
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