सोमवार, जुलाई 1

गंध झरे जिससे कोमल

गंध झरे जिससे कोमल

जीवन के झुलसाते पथ पर 

मनोहारी शीतल इक छाँव है, 

सूने कँटीले इस मार्ग पर 

सुंदर सलोना सा ठाँव है !


सागर की चंचल लहरों में 

नौका को भी थामे रखता, 

हर इक बार भटकता राही  

पा ही जाता एक गाँव है !


कोई कभी अनाथ हुआ कब 

वह पग-पग साथ निभाता है,  

कैसे जीना इस जीवन में 

ख़ुद आकर सदा सिखाता है !


 कदमों में गति वही भरे है

श्वासों में बनकर प्राण रहा,

नहीं कभी कोई भय व्यापे 

अंतर में दृढ़ विश्वास भरा !  


तेरे होने से ही हम हैं 

तेरे कदमों में आये हैं,  

  गंध झरे जिससे कोमल

वे मौन गीत ही गाये हैं ! 





10 टिप्‍पणियां:

  1. बेहद सुंदर शब्द संयोजन, अध्यात्मिक भावों से परिपूर्ण बहुत मनभावन रचना।
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    उसपर विश्वास अडिग जब हो
    पथ से फिर कौन डिगा सकता है।
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    जी नमस्ते,
    आपकी लिखी रचना मंगलवार २ जुलाई २०२४ के लिए साझा की गयी है
    पांच लिंकों का आनंद पर...
    आप भी सादर आमंत्रित हैं।
    सादर
    धन्यवाद।

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  2. एक शाश्वत शक्त‍ि की अवधारणा को बलवती करती ...गजब पंक्त‍ियां हैं क‍ि ''कोई कभी अनाथ हुआ कब

    वह पग-पग साथ निभाता है,

    कैसे जीना इस जीवन में

    ख़ुद आकर सदा सिखाता है ''...वाह अनीता जी

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  3. कोई कभी अनाथ हुआ कब

    वह पग-पग साथ निभाता है,

    कैसे जीना इस जीवन में

    ख़ुद आकर सदा सिखाता है !
    बस इतनी अनुभूति हो जाय और सदैव स्मरण रहे त़ कोई दुखी ही ना हो ।
    घट घट में रहकर भी अनुभूति से परे...यह भी उसी की लीला है ।
    लाजवाब सृजन सदा की तरह...

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