रविवार, अक्तूबर 3

यज्ञ

यज्ञ


यज्ञ भीतर चल रहा है

श्वास समिधा बन संवरती
प्रीत जगती की सुलगती
मोह कितना छल रहा था,
सहज सुख अब पल रहा है !

मंत्र भी गूजें अहर्निश
ज्योति माला है समर्पित
कामना ज्वर जल रहा था,
अहम मिथ्या गल रहा है !

अनवरत यह यज्ञ चलता
प्राण दीपक नित्य जलता
पास न कुछ हल रहा था,
उम्र सूरज ढल रहा है !

खोजता था मन युगों से
छल मिला स्वर्ण मृगों से
व्यर्थ भीतर मल रहा था
परम सत्य पल रहा है !

चाह थी नीले गगन की
मृत्यू देखी हर सपन की
स्नेह घृत भी डल रहा था
द्वैत अब तो खल रहा है !

अनिता निहालानी
३ अक्टूबर २०१०

1 टिप्पणी:

  1. अनीता जी,
    आप मेरे ब्लॉग खलील जिब्रान पर आईं और हौसलाफजाई की उसके लिए मैं तहेदिल से आपका शुक्रगुज़ार हूँ .............अच्छा लगा आपका ब्लॉग ...........ब्लॉगजगत में हिंदी में इतना शुद्ध लिखने वाले बहुत कम लोग हैं आपकी कविता बहुत ऊँचाई को छूती है.....अध्यात्म की झलक मिली इस रचना में .......बहुत सुन्दर...आप जैसे फनकार के ब्लॉग को फॉलो करके मुझे ख़ुशी होगी |

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