यह कविता मेरी छोटी बहन के लिये है और यह उन सब कामकाजी महिलाओं के लिये भी है जो वर्षों से अपने प्रोफेशन के साथ साथ घर की जिम्मेदारी बिना शिकायत के निभाती आ रही हैं, किन्तु अब उम्र के उस पडाव पर आ पहुंची हैं, जहाँ खुद से खुद की मुलाकात होती है, प्रौढावस्था तक आते आते तन व मन तनाव से ग्रस्त हो चुके होते हैं जीवन में सभी उपलब्धियां हासिल कर चुकने के बाद भी एक खालीपन सा लगता है... एक नयी तलाश शुरू होती है खुद की तलाश....
जितना दौड़ो कम पड़ता है
सुंदर मुखड़ा, गोरी रंगत
नन्हीं-मुन्नी एक परी थी,
घुंघराले थे काले कुंतल
घर भर में सबसे छोटी थी I
पढ़ने में भी थी होशियार
नृत्य कला सौंदर्य विचार,
हँसती तो गालों में गढ्ढे
आँखों में थे स्वप्न हजार !
कब वह इतनी बड़ी हो गयी
निज पैरों पर खड़ी हो गयी,
मेहनत कर वह बनी डॉक्टर
ड्यूटी की संभाला भी घर I
जो चाहा पाया जीवन में
बच्चों को संस्कार दिया,
सँग मरीजों के अपनों सा
सदा प्रेम व्यवहार किया I
आज उम्र के दोराहे पर
जग में कुछ कर के दिखलाए
थक कर बैठी रही सोचती
या फिर मानव धर्म निभाए ?
मानव होने का अर्थ क्या
निज के भीतर खुद को पाना,
तोड़ के मन, बुद्धि के घेरे
आत्म शक्ति से प्रीत लगाना I
जितना दौड़ो कम पड़ता है
यह जग अंधा एक कुआँ है,
कभी तृप्त ना हो सकता यह
सदैव अधूरा ही हुआ है I
युगों युगों से यही कहानी
दोहराती स्वयं को आयी है,
जग यह माया जाल घना है
भीतर ही खुशियाँ पायीं हैं I
दो पल थम कर खुद सँग हो ले
जिसने पाया, भीतर पाया,
नहीं छोड़ना कुछ भी बाहर
जिसको तृष्णा तजना आया I
कर कर के भी जो न मिलता
शांत हुए से सहज मिलेगा,
कुछ भी नहीं शांति के आगे
भाव सधे तो प्रेम खिलेगा I
जीवन का है यही रहस्य
जिसने छोड़ा उसने पाया,
सहज रहा जो जैसा भी है
उसने साथ स्वयं का पाया I
अनिता निहालानी
२१ अक्तूबर २०१०
अनीता जी,
जवाब देंहटाएंकई बार आपकी कविता पड़ने के बाद कहने को शब्द नहीं मिलते..........आपकी तरह मैं भी उन सभी महिलाओं को और उन को भी जो सिर्फ घर संभालती हैं....... नमन करता हूँ...........ये पंक्तियाँ बहुत पसंद आयीं......
"जितना दौड़ो कम पड़ता है
यह जग अंधा एक कुआँ है,
कभी तृप्त ना हो सकता यह
सदैव अधूरा ही हुआ है I
युगों युगों से यही कहानी
दोहराती स्वयं को आयी है,
जग यह माया जाल घना है
भीतर ही खुशियाँ पायीं हैं I
कर कर के भी जो न मिलता
शांत हुए से सहज मिलेगा,
कुछ भी नहीं शांति के आगे
भाव सधे तो प्रेम खिलेगा I
जीवन का है यही रहस्य
जिसने छोड़ा उसने पाया,
सहज रहा जो जैसा भी है
उसने साथ स्वयं का पाया इ"
आप ऐसे ही लिखती रहे........मेरी शुभकामनायें|