दर्द की दास्तां
जो दर्द छुपा भीतर
खुद तुमने गढ़ा उसको
नाजों से पाला है
खुद बड़ा किया उसको I
तुमने उसे माँगा है
ऊर्जा पुकारी है
यदि मुक्त हुआ चाहो
मर्जी यह तुम्हारी है I
हम ही कर्ता धर्ता
हमने ही भाग्य रचा
अनजाने में ही सही
दुःख वाली लिखी ऋचा I
अब हम पर है निर्भर
यह दांव कहाँ खेलें
जीवन शतरंज बिछा
कैसे यह चाल चलें I
सुख की यदि चाह तुम्हें
बोली तो लगाओ अब
क्या कीमत दे सकते
यह सर तो गवाओं अब I
अनिता निहालानी
६ अक्तूबर २०१०
सुख की यदि चाह तुम्हें
जवाब देंहटाएंबोली तो लगाओ अब
क्या कीमत दे सकते
यह सर तो गवाओं अब I
सच सुख की चाह मे इंसान कहाँ कहाँ से गुजर जाता है मगर बलिदान कोई नही देना चाहता।
अनीता जी,
जवाब देंहटाएंएक बार फिर एक बहुत ही शानदार रचना के लिए बधाई.........सच आपकी रचनाओं में बहुत ऊँचाई है...........सूफियाना झलक.......सुभानाल्लाह.......ऐसा लगता है जैसे आपकी कविताओं में ओशो का दर्शन मिला है..........एक प्रश्न है, यदि आप उत्तर देना चाहें......क्या आप ओशो जी को पड़ती हैं?
वन्दना जी,आपने बिलकुल सही कहा हम सुख पाने के लिये अहंकार का बलिदान देना नहीं चाहते, यही सारे दुखों का कारण है.
जवाब देंहटाएंइमरान जी, यह सही है की मैंने ओशो को पढ़ा है, लेकिन श्री श्री को मैंने सदगुरु माना है, सारे जगे हुए संत एक ही बात तो कहते हैं, ध्यान से समाधि और दुखों से मुक्ति, इतनी सी बात है लेकिन अनंत शब्द भी कम पड़ेगें इस अनुभव को बताने में !