प्रेम पंख देता है मन को
प्रीत की मस्ती में डोले मन
क्या डोलेगी यह पुरवैया,
प्रेम पुलक बन लहराए तन
शरमाए सागर में नैया !
प्रेम पंख देता है मन को
उड़ने का सम्बल भर देता,
पल में पथ के कंट जाल हर
फूलों कलियों से भर देता !
हृदय गुफा का द्वार खोलता
अमृत घट बन मधु बरसाए,
सहज जगाता दिव्य चेतना
‘कोई है’ जो नजर न आये !
प्रेम से ही सृष्टि का वर्तन
इससे पूरित जग का हर कण,
प्रेम ऊर्जा व्याप रही है
यही संवारे प्रतिपल जीवन !
एक प्रेम की ही सत्ता थी
जब न था कुछ भी सृष्टि में,
एक हुआ अनेक प्रेम वश
ज्यों बदली बदले बूंदों में !
जैसे माँ निज अंग से रचती
शिशु को प्रेम सुधा पिलाती,
प्रेम की धारा बहती अविरल
जग के कण-कण को नहलाती !
वही कृष्ण राधा बन डोले
प्रेम रसिक बन अंतर खोले
मीरा की वीणा का सुर वह
बिना मोल के कान्हा तोले !
बाल, किशोर, युवा वृद्ध हो
प्रेम से ही पोषण पाते सब
हर आत्मा की ललक प्रेम है
खिले तभी प्रेम मिले जब !
अनिता निहालानी
१३ अक्तूबर २०१०
prem to bas prem hai wah chahe laukik ho ya alaukik
जवाब देंहटाएंbhavpoorn sunder rachna
सुंदर
जवाब देंहटाएंबाल, किशोर, युवा वृद्ध हो
जवाब देंहटाएंप्रेम से ही पोषण पाते सब
हर आत्मा की ललक प्रेम है
खिले तभी प्रेम मिले जब !
बेहद सुन्दर प्रेम की अभिव्यक्ति।
प्रेम पंख देता है मन को की
जवाब देंहटाएंजितना चाहो उतना उड़ लो
वाह बढ़िया मनमोहक
bahut sundar
जवाब देंहटाएंkabhi samay nikal kar yaha bhi aaye
www.deepti09sharma.blogspot.com