शनिवार, जुलाई 9

खोया खोया सा मन रहता

खोया खोया सा मन रहता

जब कोई हौले से आकर
कानों में वंशी धुन छेड़े,
माली दे ज्यों जल पादप को 
जब कोई अंतर को सींचे !

जब तारीफों के पुल बांधें  
नजरों में जिनकी न आये,
जब सफलता घर की चेरी
पांव जमीं पर न पड़ पाएँ !

जब सब कुछ बस में लगता हो
गाड़ी ज्यों पटरी पर आयी,
रब से कोई नहीं शिकायत
दिल में राहत बसने आयी !

फिर भी भीतर कसक बनी सी
अहम् को चोट लगा करती है,
खोया-खोया सा मन रहता
स्मित अधरों पे कहाँ टिकती है !

पीड़ा तन की या फिर मन की
उलझन ही कोई प्रियजन की,
रातों को न नींद आ रही
रौनक चली गयी आंगन की !

 मन सुख की लालसा करता
जग से लेन-देन चलता है,
लेकिन भेद न जाने कोई
असली खेल कहाँ चलता है !
    



11 टिप्‍पणियां:

  1. जीवन ऐसे ही चलता है ...अनीता जी ...सुख-दुःख आते जाते हैं ...वही हमें एक समता भी देते ..न सुख में ज्यादा सुखी ...न दुःख में ज्यादा दुखी ..किन्तु मालूम होते हुए भी इस भंवर से हट जाना सरल नहीं है ....!!
    मन की गहराइयों से निकली ...बहुत सुंदर रचना ...

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  2. मन सुख की लालसा करता
    जग से लेन-देन चलता है,
    लेकिन भेद न जाने कोई
    असली खेल कहाँ चलता है !

    बिलकुल सही बात कही है आपने.

    सादर

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  3. पीड़ा तन की या फिर मन की
    उलझन ही कोई प्रियजन की,
    रातों को न नींद आ रही
    रौनक चली गयी आंगन की !
    sundar bhavnatmak prastuti.

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  4. असली कहाँ चलता ये कोई जान ले तो क्या बात हो…………बहुत सुन्दर्।

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  5. लेकिन भेद न जाने कोई
    असली खेल कहाँ चलता है !

    सही बात कही है आपने.

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  6.  अस्वस्थता के कारण करीब 20 दिनों से ब्लॉगजगत से दूर था
    आप तक बहुत दिनों के बाद आ सका हूँ,

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  7. मन सुख की लालसा करता
    जग से लेन-देन चलता है,
    लेकिन भेद न जाने कोई
    असली खेल कहाँ चलता है !
    बहुत सुंदर रचना ।

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  8. सरस, रोचक और भावपूर्ण रचना के लिए बधाई स्वीकारें।

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  9. लेकिन भेद न जाने कोई
    असली खेल कहाँ चलता है !

    Bahut acchi rachna..

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