रविवार, दिसंबर 4

तेरे सिवा कोई और कहाँ है


तेरे सिवा कोई और कहाँ है


बन जाऊँ मैं तेरी बांसुरी
तेरे गीतों को जन्माऊँ,
तू ही झलक-झलक जाये फिर
मन दर्पण को यूँ चमकाऊँ !

प्रस्तर में ज्यों छिपी मूर्ति
शिल्पी की आँखें लख लेतीं,
इस महा अस्तित्त्व में कान्हा
निरख-निरख शुभ दर्शन पाऊँ !

कण-कण में जो गूंज रहा सुर
उर में ही झंकृत कर पाऊँ,
हवा, धूप, आकाश, अनल सा
निकट सदा पा तुझको ध्याऊँ ! 

‘मैं’ ही जो ‘मैं’ जो भीतर रहता
ढक पुष्पों से उसे चढाऊँ,
ज्यों जल भरता खाली घट में
अंतर्मन में तुझे समाऊँ !

तेरे सिवा कोई और कहाँ है
माया कह कर किसे बुलाऊँ,
तू ही भीतर तू ही बाहर
लख-लख यह लीला मुस्काऊँ !

एक तत्व से हुआ पसारा
एक उसी को सदा रिझाऊं,
‘तू’ ही ‘मैं’ बन खोज रहा है
अद्भुत भेद समझ न पाऊं !

15 टिप्‍पणियां:

  1. ‘तू’ ही ‘मैं’ बन खोज रहा है
    अद्भुत भेद समझ न पाऊं !

    गहन और सार्थक ...बहुत ही सुंदर
    सुंदर दृष्टि प्रभु दें तो कुछ बुरा नहीं है ...!!

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  2. कल 05/12/2011को आपकी यह पोस्ट नयी पुरानी हलचल पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
    धन्यवाद!

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  3. वाह वाह अति उत्तम भाव संयोजन्।

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  4. लख-लख यह लीला मुस्काऊँ ...अद्भुत लिखा है |

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  5. जब तेरे मेरे का भेद मिट जाता है तो सभी कुछ कृष्ण मय हो जाता है ... उत्तम प्रस्तुति ...

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  6. सुन्दर प्रस्तुति ||

    बधाई ||

    http://terahsatrah.blogspot.com

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  7. सुन्दर शब्दावली, सुन्दर अभिव्यक्ति.

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  8. बहुत ही अच्‍छी प्रस्‍तुति ।

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  9. बहुत सुन्दर हमेशा की तरह :-)

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