नहीं तो...
देह नहीं हो सकता वह
क्योंकि देह उसकी अस्वस्थ है
पर वह पूर्ववत् है
मन भी नहीं क्योंकि मन उसका उदास भी हो सकता है
पर वह खिला रहता है भीतर पूर्ववत्
वह खुद का पता जानने जाता है जब भीतर
एक सन्नाटा ही हाथ आता है
वहाँ कोई नहीं मिलता
कोई नहीं ऐसा जिसे कुछ कहा जा सके
जिसके साथ कुछ किया जा सके....
जो बस है
और जिसके इर्द गिर्द तानाबाना बुना गया है
देह व मन का
जो रहेगा तब भी
जब यह ताना-बना छिन्न भिन्न हो जायेगा
जब मन के कटोरे में देखता है
तो वही मान बैठता है खुद को
कभी देह के पात्र में वही
अभी उसने खुद के दर्पण में खुद को देखा ही नहीं
नहीं तो....
नहीं तो .. ईश्वर को खोजता नहीं फिरता..उत्तम कृति..
जवाब देंहटाएंसही कहा आपने अमृता जी, हम जीवन भर जिसे खोजते रहते हैं वह कितना निकट है हमने इसका आभास ही नहीं हो पाता..
हटाएंअपनी रूह को देखा नहीं????
जवाब देंहटाएंअनु
अनु जी, रूह को देखेगा कौन ?
हटाएंदेखेंगे न...
हटाएंमन की आँखों से..
:-)
सुन्दर और बेहतरीन ।
जवाब देंहटाएंवाह--
जवाब देंहटाएंसुन्दर प्रस्तुति |
बधाई स्वीकारें ||
प्रभावित करती रचना .
जवाब देंहटाएंखुद के दर्पण में खुद को देखा ही नहीं ! बहुत अच्छी प्रस्तुति ...
जवाब देंहटाएंइमरान, सुषमा जी, रजनीश जी व ललित जी आप सभी का स्वागत व आभार !
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