अपनी ही छाया डसती है 
ज्यों अपनी ही छाया 
ढक लेती है सम्मुख मार्ग को 
जब चल पड़ते हैं हम 
प्रकाश से विमुख होकर ! 
वैसे ही विचार 
भाव से विमुख हुआ यदि  
स्वयं के आग्रहों से होता है ग्रसित 
कोई नहीं है अन्य
 कोई भी नहीं 
जो हो मित्र होने को उत्सुक 
तो शत्रु होने की कौन कहे...? 
सब कैद हैं अपनी ही छायाओं में... 
हर पल जब 
स्वछन्द होता है विचार 
बुनियाद रख रहा होता है 
एक नए संघर्ष की
जो लड़ा जायेगा भविष्य में
 जिसका भागी होना होगा स्वयं को 
और देह को भी भुगतना होगा दंड 
जब जब आक्रामक होगा 
चाहेगा मान 
खोदता ही जायेगा गढ्ढे 
जिसमें गिरने ही वाला है भविष्य में 
भाव की ओर मुख किया विचार 
प्रकाशित होता है 
कोई छाया उसके सम्मुख नहीं पड़ती 
खो जाता है अनंत की आभा में...
 
अद्भुत.............
जवाब देंहटाएंसादर
सही कहा हम अपने विचारों से स्वयं के लिए ही गड्ढे खोदते हैं ... विचारणीय प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंहर पल जब
जवाब देंहटाएंस्वछन्द होता है विचार
बुनियाद रख रहा होता है
एक नए संघर्ष की
जो लड़ा जायेगा भविष्य में
खुद से खुद की ही जंग है यही कशमकश चलती है
बहुत सुन्दर विचारणीय प्रस्तुति....
जवाब देंहटाएंसब कैद हैं अपनी ही छायाओं में...
जवाब देंहटाएंसब कुछ अपनाअ ही बनाया हुआ जाल ...!!
सुंदर ...बहुत सुंदर भाव ...!!
प्रभावशाली रचना......
जवाब देंहटाएंbahut sunder vicharneey, prabhavshali prastuti.
जवाब देंहटाएंअनु जी, इमरान, संगीता जी, माहेश्वरी जी, अनुपमाजी, सुषमा जी व अनामिका जी आप सभी का स्वागत व आभार !
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