सोमवार, अगस्त 5

ओट में पर्दे की बैठे


ओट में पर्दे की बैठे

दिल पे कितना बोझ धारे
चल रहे हम  

कुछ तमन्नाएँ अधूरी
आरजू जो हुई न पूरी
कुछ पूरानी दास्तानें
अनपढ़े से कुछ फसाने 
भीड़ कांधों पर संभाले, बस यूँ ही तो
ढल रहे हम  

बेबसी के पल वे सारे
ढूँढ़ता था मन सहारे
पास होकर दूर हर जन
जिस घड़ी मजबूर था मन
लाश ढोते भूत की, स्वयं को ही
छल रहे हम  

रूह में थी छाप उनकी
खो गयी अब थाप जिनकी
छुपे पर वे सब वहाँ थे 
ओट में पर्दे की बैठे
आ खड़े होते वे सम्मुख, जब जरा सा
जल रहे हम 




10 टिप्‍पणियां:

  1. लाश ढोते भूत की, स्वयं को ही छल रहे हम .......अच्‍छी कविता।

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  2. आपने लिखा....
    हमने पढ़ा....और लोग भी पढ़ें;
    इसलिए बुधवार 07/08/2013 को http://nayi-purani-halchal.blogspot.in ....पर लिंक की जाएगी.
    आप भी देख लीजिएगा एक नज़र ....
    लिंक में आपका स्वागत है .
    धन्यवाद!

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  3. स्वयं को ही छलते रहते हैं... हम चलते रहते हैं!

    सुन्दर लेखन!

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  4. बेबसी के पल वे सारे
    ढूँढ़ता था मन सहारे
    पास होकर दूर हर जन
    जिस घड़ी मजबूर था मन
    लाश ढोते भूत की, स्वयं को ही
    छल रहे हम

    लयात्मक गत्यात्मक अर्थ पूर्ण खूब सूरत रचना भाव और अर्थ की सुन्दर अन्विति समस्वरता है रचना में।

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  5. एक लय में बंधी ये कविता मन को मोह लेने वाली है। …… हैट्स ऑफ इसके लिये।

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  6. सरल उत्कृष्ट अभिव्यक्ति ..

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  7. दिल पे कितना बोझ धारे
    चल रहे हम

    कुछ तमन्नाएँ अधूरी
    आरजू जो हुई न पूरी
    कुछ पूरानी दास्तानें
    अनपढ़े से कुछ फसाने
    भीड़ कांधों पर संभाले, बस यूँ ही तो
    ढल रहे हम

    हर बंद (बंदिश )इस रचना की खूबसूरत है। ले ताल से भरपूर है संगीतिक है। ॐ शान्ति।

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  8. माहेश्वरी जी, विकेश जी, वीरू भाई, इमरान, सतीश जी, अनुपमा जी आप सभी का स्वागत व आभार !

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