सोमवार, सितंबर 28

फूल बना हो जैसे बीज

फूल बना हो जैसे बीज



एक ऊर्जा है अनाम जो
खींच रही है अपनी ओर,
पता ठिकाना नहीं है जिसका
दीवाना जिसका मन मोर !

प्रेम उमगता भीतर आता
उसकी कोई खबर न मिलती,
जिसकी तरफ उमड़ती धारा
जरा भी उसकी भनक न मिलती !

हृदय पिघलकर बहता जाता
दिशा नहीं नजर आती है,
‘मैं’ खोया जब बचे ‘वह’ कैसे
उसकी छाया मिट जाती है !

कण-कण में मधु बिखरा जिसका
कैसे एक दिशा में समाए,
पल-पल फिर अमृत बन जाता
मिटकर ही तो उसको पाए !

तृप्त हुआ फिर डोले उर यह
 फूल बना हो जैसे बीज,
मंजिल पर ज्यों राह आ मिली
छूटी डगर-डगर की प्रीत !



6 टिप्‍पणियां:

  1. तृप्त हुआ फिर डोले उर यह
    फूल बना हो जैसे बीज,
    मंजिल पर ज्यों राह आ मिली
    छूटी डगर-डगर की प्रीत !

    ...अद्भुत और सटीक अभिव्यक्ति...

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  2. वह असीम चेतना जब अनायास संचालित करने लगती है , मन आंतरिक उल्लास से विभोर हो उठता है .

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  3. सच है यह अनुभव अभूतपूर्व है.
    सुंदर भावपूर्ण रचना.

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  4. कैलाश जी, मधुलिका जी, रचना जी, माहेश्वरी जी तथा प्रतिभा जी आप सभी का स्वागत व आभार !

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