मंगलवार, सितंबर 5

ढाई आखर भी पढ़ सकता

ढाई आखर भी पढ़ सकता

उसका होना ही काफी है
शेष सभी कुछ सहज घट रहा,
जितना जिसको भाए ले ले
दिवस रात वह सहज बंट रहा !

स्वर्ण रश्मियाँ बिछी हुई हैं
इन्द्रधनुष कोई गढ़ सकता,
मदिर चन्द्रिमा भी बिखरी है
ढाई आखर भी पढ़ सकता !

बहा जा रहा अमृत सा जल
अंतर में सावन को भर ले,
उड़ा जा रहा गतिमय समीर 
चाहे तो हर व्याधि हर ले !

देना जब से भूले हैं हम
लेने की भी रीत छोड़ दी,
अपनी प्रतिमा की खातिर ही
मर्यादा हर एक तोड़ दी !

क्यों न हम भी उसके जैसे
होकर भी ना कुछ हो जाएँ,
एक हुए फिर इस सृष्टि से
बिखरें, बहें और मिट जाएँ !

7 टिप्‍पणियां:

  1. अविस्मरणीय, सब कुछ इतना कुछ देने-रचने के बाद भी कर्ता-रचनाकर्मी का भाव त्याग देने की ऐसी सुंदर अनुभूति कितने अच्छे कविताई उदगारों से प्रकट हो रही है। सुन्दरतम। मनोहर।

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  2. वाह्ह्ह....अति सुंदर भाव में गूँथी हुई बहुत मनोहारी रचना अनिता जी।👌👌

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  3. आपकी इस पस्तुति का लिंक 07-09-2017 को चर्चा मंच पर चर्चा - 2720 में दीिया जाएगा
    धन्यवाद

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  4. बहुत बहुत धन्यवाद दिलबाग जी !

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