जाने कब वह घड़ी मिलेगी
तुमको ही तुमसे मिलना है
खुला हुआ अविरल मन उपवन,
जब जी चाहे चरण धरो तुम
सदा गूंजती मृदु धुन अर्चन !
न अधैर्य से कंपतीं श्वासें
शुभ्र गगन से छाओ भीतर,
दिनकर स्वर्ण रश्मि बन छूओ
कुसुमों की या खुशबू बनकर !
कभी न तुमको बिसराया है
जगते-सोते याद तुम्हारी,
उठती-गिरती पल में झलके
मेघों में ज्यों द्युति चमकारी !
जाने कब वह घड़ी मिलेगी
कब ढ़ुलकोगे अमी कलश से,
टूटेंगी कब सीमाएं सब
प्रकटोगे श्यामल झुरमुट से !
अब जो भी बाधा है पथ में
वह भी दूर तुम्हें करनी है
सौंप दिया जब शून्य, शून्य में
तुम्हें कालिमा भी हरनी है !
आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 14-09-17 को चर्चा मंच पर चर्चा - 2727 में दिया जाएगा
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
बहुत बहुत आभार दिलबाग जी !
हटाएंआपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन रामास्वामी परमेस्वरन और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।
जवाब देंहटाएंऐसे गीत उन भावनाओं को प्रकट कर रहे हैं, जो हमारी कल्पषना में तो रहते हैं, पर भूले-बिसरे हो जाते हैं, हमारी ही असंवेदना के कारण, ऐसे भावों को विराट संवेदना, भाषा शिल्पा व सौंदर्य सहित शब्दां कित करना कितना बड़ी योग्यदता है। बहुत ही सुन्दार। मनभावन।
जवाब देंहटाएंविकेश जी, आपकी काव्य ग्राह्यता को नमन..सकारात्मक टिप्पणी के लिए आभार !
हटाएंमनभावन रचना
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार गगन जी !
हटाएंसौंप दिया जब शून्य, शून्य में
जवाब देंहटाएंतुम्हें कालिमा भी हरनी है ! ......सुन्दर!
वाह, मोहक पंक्तियां. सादर
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर कविता अनिता जी।
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार पम्मी जी !
जवाब देंहटाएंविश्वमोहन जी, अपर्णा जी व श्वेता जी आप सभी का स्वागत व आभार !
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुंदर !
जवाब देंहटाएंआदरणीय धर्मवीर भारती जी की एक रचना से कुछ याद आ रहा है....
"ऐसे घाव तो हम सबों के मन में हैं,पता नहीं किन हरियाली घाटियों के वासी हमारे प्राण, इन अपरिचित परिस्थितियों की सीमा में बँधे, परदेश में भटक से रहे हैं और उसी सुदूर के प्यासे हैं....."
और आपने लिखा....
'तुमको तुमसे ही मिलना है !'
मन मोह लेने वाली रचना । बधाई अनिता जी ।
सचमुच हमारे प्राण स्वर्ग से उतरे हैं और भटक गये हैं इस धरा पर, कोई कोई गढ़ लेता है अपना स्वर्ग इसी भू पर और तब लगता है वह अपने घर लौट गया है..स्वागत व आभार मीना जी !
जवाब देंहटाएंumda rachna....
जवाब देंहटाएंन अधैर्य से कंपतीं श्वासें
जवाब देंहटाएंशुभ्र गगन से छाओ भीतर,
दिनकर स्वर्ण रश्मि बन छूओ
कुसुमों की या खुशबू बनकर !
Wahhhhh। बहुत उम्दा। अप्रतिम अनीता जी।
अरुण जी व अमित जी, स्वागत व आभार !
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