अंतर अभीप्सा
आकाश शुभ्र है
शुभ्र हैं हिमालय के शिखर
है अग्नि पावन
और पावन है मानसरोवर का जल
आत्मशक्ति उठना चाहती है गगन की ओर
अग्नि की भांति
बढ़ना चाहती है उर्ध्व दिशा में ही
बुझा देता है शिखा, मन
बन जलधार
ढक लेती ज्योति को
बुद्धि बन दीवार
उसे कभी प्रकाशित नहीं होने देती
इच्छाओं और वासनाओं की कालिमा
मोह-माया का छाजन
अभिव्यक्त नहीं होने देता
सुलगती रहती है भीतर ही भीतर
उसकी आंच जलाती भी है
झांकता है जब कोई भीतर
बुलाती है अपनी ओर उसकी पुकार
पर शीतलता के उपाय भीरु हृदय
तलाशता है बाहर ही बाहर
कभी वृक्षों की शीतल छाँह
कभी शीतल जल के स्रोत
अतृप्त रहे जाती तृष्णा
बल्कि बढ़ती ही जाती है
और जीवन की शाम हो जाती है
तब मृत्यु का अधंकार
उसे लील जाता है एक दिन..
फिर वही क्रम आरम्भ हो जाता है
जब तक नहीं जलती भीतर की
परम ज्योति प्रखर होकर
नहीं मिटती जलन अंतर की..
जब तक नहीं महकता आत्मा का फूल भीतर
नहीं मिलता सुख का स्पर्श कोमल !
आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 24.05.2018 को चर्चा मंच पर चर्चा - 2980 में दिया जाएगा
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
बहुत बहुत आभार दिलबाग जी !
हटाएंआपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन 23 मई - विश्व कछुआ दिवस और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार रश्मि जी !
जवाब देंहटाएंजीवन मृत्यु के इस क्रम से बाहर निकलना आसान भी तो
जवाब देंहटाएंनहि होता ... मानवीय बातें ध्यान और मुक्ति के मार्ग पर कहाँ जाने देती हैं ...
सुंदर दार्शनिकता का आभास देती रचना ...
ध्यान और मुक्ति के मार्ग पर एक न एक दिन तो जाना ही होगा..स्वागत व आभार दिगम्बर जी !
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